जिन-सूत्र, भाग: चार – Jin Sutra, Vol. 4

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ओशो ने भगवान महावीर के समण-सुत्तं पर बोली प्रवचन माला में कुल बासठ प्रवचन दिए हैं। भाग चतुर्थ में कुल पंद्रह प्रवचनों का अपूर्व संकलन है।
ओशो ने भगवान महावीर के समण-सुत्तं पर बोली प्रवचन माला में कुल बासठ प्रवचन दिए हैं। भाग चतुर्थ में कुल पंद्रह प्रवचनों का अपूर्व संकलन है।

मनुष्य के मन के आधार ही चुनाव में हैं। मनुष्य के मन की बुनियाद चुनने में है। चुना, कि मन आया। न चुनो, मन नहीं है। इसलिए कृष्णमूर्ति बहुत जोर देकर कहते हैं, च्वाइसलेस अवेयरनेस--चुनावरहित सजगता। चुनावरहित सजगता में मन का निर्माण नहीं होता। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। मन को तो बहुत लोग मिटाना चाहते हैं। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जो मन से परेशान न हो। मन से बहुत पीड़ा मिलती है, बेचैनी मिलती है। मन का कोई मार्ग शांति तक, आनंद तक जाता नहीं; कांटे ही चुभते हैं। मन आशा देता है फूलों की, भरोसा बंधाता है फूलों का; हाथ आते-आते तक सभी फूल कांटे हो जाते हैं। ऊपर लिखा होता है--सुख। भीतर खोजने पर दुख मिलता है। जहां-जहां स्वर्ग की धारणा बनती है, वहीं-वहीं नरक की उपलब्धि होती है। तो स्वाभाविक है कि मनुष्य मन से छूटना चाहे; लेकिन चाह काफी नहीं है। यह भी हो सकता है कि मन से छूटने की चाह भी मन को ही बनाए। क्योंकि सभी चाह मन को बनाती हैं। चाह मात्र मन की निर्मात्री है। तो बुनियाद को खोजना जरूरी है, मन बनता कैसे है? यह पूछना ठीक नहीं कि मन मिटे कैसे? इतना ही जानना काफी है कि मन बनता कैसे है! और हम न बनाएं तो मन नहीं बनता। हमारे बनाए बनता है। हम मालिक हैं। लेकिन ऐसा हो गया है कि बुनियाद में हम झांकते नहीं, जड़ों को हम देखते नहीं, पत्ते काटते रहते हैं। पत्ते काटने से कुछ हल नहीं होता। महावीर का यह पहला सूत्र, निर्विकल्प भाव-दशा के लिए पहला कदम है। महावीर कहते हैं, न तो राग में, न द्वेष में। ये दो ही तो मन के विकल्प हैं। इन्हीं में तो मन डोलता है, घड़ी के पेंडुलम की तरह। कभी मित्रता बनाता, कभी शत्रुता बनाता। कभी कहता अपना, कभी कहता पराया। जैसे ही तुमने राग बनाया, तुमने द्वेष के भी आधार रख दिए। खयाल किया? किसी को भी मित्र बनाए बिना शत्रु बनाना संभव नहीं। शत्रु बनाना हो तो पहले मित्र बनाना ही पड़े। तो मित्र बनाया कि शत्रुता की शुरुआत हो गई। तुमने कहा किसी से ‘मेरा है’, संयोग-मिलन को पकड़ा--बिछोह के बीज बो दिए। जिसे तुमने जोर से पकड़ा, वही तुमसे छीन लिया जाएगा। तो यह भी संभव हो जाता है कि आदमी देखता है, जिसे भी मैं पकड़ता हूं, वही मुझसे छूट जाता है। तो छोड़ने को पकड़ने लगता है, कि सिर्फ छोड़ने को पकड़ लूं। यही तो तुम्हारे त्यागी और विरागियों की पूरी कथा है। —ओशो
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Publisher Osho Media International
Type फुल सीरीज