गीता-दर्शन, अध्याय छह – Gita Darshan, Adhyaya 6
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श्रीमद्भगवद्गीता पर ओशो के प्रवचन।
श्रीमद्भगवद्गीता पर ओशो के प्रवचन।
आस्तिक की मेरी तरफ एक ही परिभाषा है, वह आदमी नहीं, जो कहता है, ईश्वर है। वह आदमी नहीं, जो कहता है कि ईश्वर है, इसके मैं प्रमाण दे सकता हूं। वह आदमी नहीं, जो ईश्वर है, ऐसी मान्यता रखकर जीता है। आस्तिक का एक ही अर्थ है, वह आदमी, जिसकी अस्तित्व के प्रति कोई शिकायत नहीं है। ईश्वर का नाम भी न ले, तो चलेगा। चर्चा ही न उठाए, तो भी चलेगा। ईश्वर की बात भी न करे, तो भी चलेगा। लेकिन अस्तित्व के प्रति, जीवन के प्रति उसकी कोई शिकायत नहीं है।
यह सारा जीवन उसके लिए एक आनंद-उत्सव है। यह सारा जीवन उसके लिए एक अनुग्रह है, एक ग्रेटिट्यूड है। यह सारा जीवन एक अनुकंपा है, एक आभार है। उसके प्राण का एक-एक स्वर धन्यवाद से भरा है, जो भी है, उसके लिए। उसमें रत्तीभर फर्क की उसकी आकांक्षा नहीं है। ऐसा व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, निष्काम भाव से उपासता है मुझे। उसके योग-क्षेम की मैं स्वयं ही चिंता कर लेता हूं। उसे अपने न तो योग की चिंता करनी है और न क्षेम की।
यहां एक बड़ी अदभुत बात है। और आमतौर से जब भी कोई इस सूत्र को पढ़ता है, तो उसको कठिनाई क्षेम में मालूम पड़ती है, योग में नहीं! इस सूत्र पर, जितने व्याख्याकार हैं, उनको कठिनाई क्षेम में मालूम पड़ती है। वे कहते हैं, योग तो ठीक है कि परमात्मा सम्हाल लेगा, अंतिम मिलन को; लेकिन यह जो रोज दैनंदिन का जीवन है, यह जो रोटी कमानी है, यह जो कपड़ा बनाना है, यह जो मकान बनाना है, यह जो बच्चे पालने हैं--यह सब--यह परमात्मा कैसे करेगा? हालत दूसरी होनी चाहिए। हालत तो यह होनी चाहिए कि ये छोटी-छोटी चीजें शायद परमात्मा कर भी लेगा। योग, साधना की अंतिम अवस्था, वह कैसे करेगा! लेकिन वह किसी को खयाल नहीं उठता।
हम सबको डर इन्हीं सब छोटी चीजों का है, इसीलिए। उस बड़ी चीज पर तो हमारी कोई दृष्टि भी नहीं है। —ओशो
Publisher | Osho Media International |
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Type | फुल सीरीज |
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