पिय को खोजन मैं चली – Piya Ko Khojan Main Chali
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ओशो द्वारा दिए गए दस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।
ओशो द्वारा दिए गए दस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।
जिसने परमात्मा को देखा है, वह दुनिया पर हंसने लगा है। इसलिए हंसने लगा है कि यह दुनिया सिवाय एक नाटक के मंच के और कुछ भी नहीं है। न यहां परेशान होने जैसा कुछ है, न पीड़ित होने जैसा कुछ है। पीड़ित हो तो तुम अपनी मूर्च्छा के कारण और परेशान हो तो तुम अपनी नासमझी के कारण। जागो तो सब अभिनय है, सब खेल है। जागोगे तो हंसोगे। जागोगे तो हंसोगे अपने पर कि मैं भी कैसा पागल था, कितना व्यथित था! जागोगे अपने सारे अतीत पर, वह लंबा-लंबा इतिहास व्यथा का, कितना रोया, कितना गिड़गिड़ाया, कितने आंसू गिराए, खिलौनों के लिए रो रहा था, मृग-मरीचिकाओं के पीछे दौड़ रहा था! और जानता भी था कि कुछ न मिलता है, न कभी मिला है, न मिल सकता है। ऐसा भी न था कि भीतर इसके गहरे में कोई प्रतीति न रही हो, लेकिन छायाएं बड़ी आकर्षक लगी थीं, क्योंकि छायाएं बड़ी सत्य मालूम हुई थीं। जागोगे तो हंसोगे अपने अतीत पर। और जागोगे तो हंसोगे सारे जगत पर कि लोग अब भी उसी नाटक को सत्य समझ रहे हैं जिसको तुम सत्य समझे थे। यह दीवाल इस जगत का प्रतीक है। इस दीवाल के पार झांकना परमात्मा में झांकने का प्रतीक है। और जो भी झांका, वह हंसा। और जो भी झांका, फिर लौटा नहीं। इसलिए एक दफा जो व्यक्ति प्रबुद्धता को उपलब्ध हो जाता है वह फिर संसार में लौट कर नहीं आता। आने का कारण ही नहीं रह जाता। आते हैं हम अपनी वासनाओं के कारण। आते हैं उन वासनाओं के कारण जो अभी अपूर्ण रह गईं, जो पूरी नहीं हो पाईं। उन्हीं वासनाओं में बंधे हम फिर चले आते हैं। वे वासनाएं रज्जुओं की भांति, रस्सियों की भांति हमें फिर खींच लेती हैं। हम वासनाओं के जब तक गुलाम हैं, तब तक लौट-लौट कर आना होगा। लेकिन जिसने परमात्मा को देख लिया, उसकी वासनाएं तत्क्षण मिट जाती हैं। जैसे प्रकाश में अंधकार समाप्त हो जाता है, ऐसे ही परमात्मा के अनुभव में, प्रार्थना के अनुभव में वासना तिरोहित हो जाती है। फिर कोई लौटना नहीं है। फिर तो कूद जाना है अनंत में, अज्ञात में, अज्ञेय में। और जो दिखाई पड़ता है व्यक्ति को उस शाश्वत में, उस सनातन में, उसे कहने का भी कोई उपाय नहीं। आदमी के शब्द बड़े छोटे हैं, बड़े ओछे हैं। नहीं कि कहने की चेष्टा नहीं की गई है, लेकिन सब चेष्टाएं असफल हो गई हैं। वेद हैं, बाइबिल है, कुरान है, गीता है, धम्मपद है, जिन-सूत्र है--पर कोई भी कह नहीं पाया। जिन्होंने भी जाना है, उन सबने कहने की चेष्टा की है, कहना चाहा है, मगर यह भी कहा है कि हम लाख कहें तो भी कह न पाएंगे। —ओशो
Publisher | OSHO Media International |
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ISBN-13 | 978-0-88050-798-1 |
Number of Pages | 350 |
File Size | 1,428 KB |
Format | Adobe ePub |
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