अनहद में बिसराम – Anahad Mein Bisram

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प्रश्नोत्तर प्रवचनमाला के अंतर्गत पुणे में ओशो द्वारा दिए गए दस प्रवचन
प्रश्नोत्तर प्रवचनमाला के अंतर्गत पुणे में ओशो द्वारा दिए गए दस प्रवचन

उद्धरण: अनहद में बिसराम,पहला प्रवचन
"दरिया कहते हैं, एक ही बात याद रखो कि परमात्मा के सिवा न हमारी कोई माता है, न हमारा कोई पिता है। और ब्रह्म के सिवाय हमारी कोई जात नहीं।

ऐसा बोध अगर हो, तो जीवन में क्रांति हो जाती है। तो ही तुम्हारे जीवन में पहली बार धर्म के सूर्य का उदय होता है।

‘गिरह हमारा सुन्न में।’

तब तुम्हें पता चलेगा कि शून्य में हमारा घर है--हमारा असली घर! जिसको बुद्ध ने निर्वाण कहा है, उसी को दरिया शून्य कह रहे हैं। परम शून्य में, परम शांति में, जहां लहर भी नहीं उठती, ऐसे शांत सागर में या शांत झील में, जहां कोई विचार की तरंग नहीं, वासना की कोई उमंग नहीं, जहां विचार का कोई उपद्रव नहीं, जहां शून्य संगीत बजता है, जहां अनाहत नाद गूंज रहा है--वहीं हमारा घर है।

‘अनहद में बिसराम।’

और जिसने उस शून्य को पा लिया, उसने ही विश्राम पाया। और ऐसा विश्राम जिसकी कोई हद नहीं है, जिसकी कोई सीमा नहीं है।

‘अनहद में बिसराम।’ यही संन्यासी की परिभाषा है। ‘गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम।’ यह संन्यासी की पूरी परिभाषा आ गई। मगर इसके लिए जरूरी है कि हम जानें: ‘जात हमारी ब्रह्म है, माता-पिता है राम।’

मैं अपने संन्यासी को न तो ईसाई मानता हूं, न हिंदू, न मुसलमान, न जैन, न बौद्ध। मेरा संन्यासी तो सिर्फ शून्य की खोज कर रहा है। सारी दीवारें गिरा रहा है। मेरा संन्यासी तो अनहद की तलाश में लगा है, सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा है। घर छोड़ना नहीं है। घर में रहते ही जानना है कि घर मेरी सीमा नहीं है। परिवार छोड़ना नहीं है। परिवार में रहते ही जानना है कि परिवार मेरी सीमा नहीं है। बस, यह बोध! इस बोध को ध्यान कहो, जागरण कहो, विवेक कहो, सुरति कहो; जो भी शब्द तुम्हें प्रीतिकर हो, वह कहो। लेकिन इसे लक्ष्य समझो कि पहुंचना है शून्य में; तभी तुम्हें विश्राम मिलेगा।

नहीं तो जीवन एक संताप है, एक पीड़ा है, एक विरह है। विरह की अग्नि! इसमें हम झुलसे जाते हैं; थके जाते हैं; टूटे जाते हैं; बिखरे जाते हैं; उखड़े जाते हैं। हमारे पत्ते-पत्ते कुम्हला गए हैं; फूलों के खिलने की तो बात बहुत दूर, हमारी जड़ें सूखी जा रही हैं। और जैसे ही किसी ने शून्य में अपनी जड़ें जमा लीं, तत्क्षण हरियाली छा जाती है; फूल उमग आते हैं; वसंत आ जाता है। बहार आ जाती है। फूलों में गंध आ जाती है। भंवरे गीत गाने लगते हैं। मधुमक्खियां गुंजार करने लगती हैं।

उस उत्सव की घड़ी में ही जानना कि जीवन कृतार्थ हुआ है।"—ओशो
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Type Series of Talks
Publisher OSHO Media International
ISBN-13 978-0-88050-792-9
Number of Pages 282
File Size 1,274 KB
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