सुमिरन मेरा हरि करैं – Sumiran Mera Hari Kare

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जीवन के विभिन्न पहलुओं पर ओशो द्वारा दिए गए बारह अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन
जीवन के विभिन्न पहलुओं पर ओशो द्वारा दिए गए बारह अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन

मलूकदास उन अनूठे व्यक्तियों में एक हुए, जिनकी गिनती अंगुलियों पर हो सकती है। मलूकदास अनूठों में भी अनूठे हैं। साधारण संत नहीं हैं, बड़े विद्रोही संत हैं। परंपरागत, रूढ़िगत, दकियानूसी उनका व्यक्तित्व नहीं है, आग्नेय हैं। अग्नि जैसे प्रज्वलित हैं। उनका एक-एक वचन हीरों से भी तौलो तो भी वजनी पड़ेगा। हीरे धूल हैं उनके वचनों के समक्ष। और यह उनका प्यारे से प्यारा वचन है। इस वचन की गहराई में उतरो तो तुम ध्यान की गहराई में उतर जाओगे। इसमें ध्यान का सार आ गया है। माला जपों न कर जपों,... मलूक कहते हैं: लाख माला जपो, कुछ भी न होगा। यह तो औपचारिकता है। बाहर का कोई कृत्य भीतर न ले जाएगा। बाहर का कृत्य तो और बाहर ही ले जाएगा। और आदमी ऐसा पागल है--अधर्म भी बाहर करता है और धर्म भी बाहर करता है। फिर धर्म और अधर्म में भेद क्या रहा? शराब घर भी बाहर है और तुम्हारी मस्जिद, तुम्हारा मंदिर और तुम्हारा गुरुद्वारा और तुम्हारा गिरजा भी बाहर है। दोनों में एक बात समान है--दोनों बाहर हैं! दोनों की यात्रा बहिर्यात्रा है। दोनों में से कोई भी स्वयं तक नहीं पहुंचा सकता। कोई फिल्मी गीत गा रहा है--अपनी धुन में मस्त; कोई राम-राम जपे जा रहा है--अपनी धुन में मस्त। मगर दोनों मन में उलझे हैं। चाहे फिल्मी गीत हो और चाहे राम का गुणगान हो--मन की ही क्रियाएं हैं। मन की कोई क्रिया अमन में नहीं ले जा सकेगी। मनातीत जाना हो तो मन की सारी क्रियाओं को पीछे छोड़ देना होगा। पाना हो सत्य को, पाना हो स्वयं को, तो न काबा साथ देगा, न काशी। संसार ही नहीं छोड़ देना है। बाहर की यात्रा व्यर्थ है--यह बोध। और जो ऊर्जा बाहर संलग्न है, इस ऊर्जा को बाहर से मुक्त कर लेना है, ताकि यह अंतर्यात्रा पर निकल जाए। अपने ही भीतर डुबकी मारनी है। वहां कैसी माला, वहां कैसा नाम, वहां कैसा जाप! न मंत्र है वहां, न तंत्र है वहां, न कोई यंत्र है वहां। शास्त्र सब पीछे छूट गए। शब्द सब पीछे छूट गए, तो शास्त्र कैसे बचेंगे? माला जपों न कर जपों,... तो न तो माला फेरता हूं, न हाथ की अंगुलियों पर राम का स्मरण करता हूं। करता ही नहीं राम का स्मरण। यह क्रांतिकारी उदघोष देखते हो! छोड़ ही दिया है राम के स्मरण को, क्योंकि स्मरण मात्र बाहर का है। स्मृति मात्र बाहर की बनती है। मन बाहर की सेवा में संलग्न है। मन बाहर का दास है। फिर धार्मिक हो मन कि अधार्मिक, बहुत भेद नहीं पड़ता। दुर्जन का हो कि सज्जन का, समान है। धर्म की आत्यंतिक दृष्टि में दुर्जन और सज्जन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; दोनों से कोई भी परमात्मा से न जुड़ सकेगा। और खतरा तो यह है कि वह जो दुर्जन है, शायद अपनी भीतरी पीड़ा के कारण, कि मैं क्या कर रहा हूं, शायद पश्चात्ताप के कारण, शायद आत्मदंश के कारण, किसी दिन अंतर्यात्रा पर भी निकल जाए; मगर सज्जन, जो सोचता है--दान दे रहा हूं, पुण्य कमा रहा हूं, मंदिर बना रहा हूं, पूजा कर रहा हूं, पाठ कर रहा हूं--वह तो क्यों छोड़ेगा! वह कुछ गलत काम तो नहीं कर रहा है! उसकी जंजीरें सोने की हैं। दुर्जन की जंजीरें लोहे की हैं। लोहे की जंजीरें तो खलती हैं, अखरती हैं--कोई भी तोड़ना चाहता है। लेकिन सोने की जंजीरों को आभूषण मान लेना बहुत आसान है। और अगर हीरे-जवाहरात जड़े हों, फिर तो कहना ही क्या! फिर तो सोने में सुगंध आ गई। —ओशो
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Publisher Osho Media International
Type फुल सीरीज