सहज समाधि भली – Sahaj Samadhi Bhali

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झेन, सूफी एवं उपनिषद की कहानियों तथा कबीर वाणी पर पुणे में हुई प्रवचनमाला के अंतर्गत ओशो द्वारा दिए गए सुबोधगम्य इक्कीस प्रवचन
सहज समाधि भली – Sahaj Samadhi Bhali
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झेन, सूफी एवं उपनिषद की कहानियों तथा कबीर वाणी पर पुणे में हुई प्रवचनमाला के अंतर्गत ओशो द्वारा दिए गए सुबोधगम्य इक्कीस प्रवचन

समाधि सहज ही होगी। असहज जो हो, वह समाधि नहीं है। प्रयास और प्रयत्न से जो हो, वह मन के पार न ले जाएगी, क्योंकि सभी प्रयास मन का है। और जिसे मन से पाया है, वह मन के ऊपर नहीं हो सकता। जिसे तुम मेहनत करके पाओगे, वह तुमसे बड़ा नहीं होगा। जिस परमात्मा को ‘तुम’ खोज लोगे, वह परमात्मा तुमसे छोटा होगा। परमात्मा को ‘प्रयास’ से पाने का कोई भी उपाय नहीं है। उसे तो ‘अप्रयास’ में ही पाया जा सकता है। ‘तुम’ उसे न पा सकोगे; तुम मिटो, तो ही उसका पाना हो सकेगा। इसलिए परमात्मा की खोज वस्तुतः परमात्मा में खोने की व्यवस्था है। मन की असफलता जहां हो जाती है, वहां समाधि फलित होती है। जब तक मन सफल होता है, तब तक तो ‘खेल’ जारी है, तब तक तो माया जारी है। तो पहली तो बात यह समझ लें कि समाधि सहज ही होगी। चेष्टा, प्रयत्न और प्रयास से उसका कोई भी संबंध नहीं है। इसलिए जिन्होंने उसे पाया है, उन्होंने कहा: प्रसाद से पाया; प्रभु की अनुकंपा से पाया। जब ऐसा कहते हैं संत कि ‘प्रभु की अनुकंपा से पाया’, तो इसका इतना ही अर्थ है कि हमने तो बहुत दौड़-धूप की; जितने हम दौड़े, उतने ही भटके; जितना हमने खोजा, उतना ही खोया; जितना हमने चाहा कि मिल जाए, उतने ही दूर होते चले गए। हमारी सभी चेष्टाएं व्यर्थ गईं। हम हार गए। जहां हार हो जाती है ‘तुम्हारी’, वहीं से परमात्मा की विजय शुरू होती है। तुम्हारी जीत परमात्मा की हार है। क्योंकि तुम्हारी जीत का अर्थ क्या होगा? तुम्हारी जीत का अर्थ होगा कि--मैं, अहंकार, अस्मिता। तुम जितने जीतोगे, उतनी ही कठिनाई खड़ी होगी। तुम हो, यही तो समस्या है। कैसे वह घड़ी आ जाए कि तुम ‘न’ हो जाओ? तुम्हारे भीतर कोई भी न हो, कोरा सन्नाटा हो। तुम्हारे मंदिर में कोई प्रतिमा न रह जाए; निराकार हो; एक शब्द भी भीतर न गूंजे। ऐसी गहरी चुप्पी लग जाए कि न कोई बोलने वाला हो, न कोई भीतर सुनने वाला हो; उसी क्षण प्रभु का प्रसाद बरसने लगेगा। उसी क्षण तुम तैयार हो। जहां तुम नहीं हो, उसी क्षण तुम तैयार हो। सभी समाधि सहज होंगी। असहज--समाधि नहीं। लेकिन मन चाहता है जीतना; हारना नहीं। मन ध्यान में भी ‘जीतना’ चाहता है, मन परमात्मा के साथ भी एक संघर्ष कर रहा है; वहां भी विजय चाहता है, वहां भी परमात्मा को मुट्ठी में चाहता है। तुमने धन कमाया, तुमने यश पाया, तुमने प्रतिष्ठा कमाई, अब तुम चाहते हो कि परमात्मा भी तुम्हारी मुट्ठी में हो; तुम कह सको कि परमात्मा को भी कमाया! तुम परमात्मा को भी बैंक-बैलेंस में कहीं जोड़ देना चाहते हो। तुम्हारी तिजोरी जब तक परमात्मा को भी बंद न कर ले, तब तक तुम्हारे अहंकार की तृप्ति नहीं है। इसलिए ज्ञानी कहते हैं, जो पा लेंगे उसे, वे कभी भूल कर न कहेंगे कि हमने पाया। और जो कहते हैं कि हमने पा लिया है, समझना कि अभी बहुत दूर है, क्योंकि दावेदार बचेगा कैसे? दावेदार का होना ही तो बाधा है। तुम जब तक कहोगे ‘मैं’, तब तक उससे मिलन न होगा। —ओशो
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Publisher Osho Media International
Type फुल सीरीज