युवक और यौन – Yuvak Aur Yaun
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योग के नये आयामों पर पुणे में ओशो द्वारा दिए गए छह अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन
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युवक और यौन – Yuvak Aur Yaun
तो जिन धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि स्त्री-पुरुष दूर रहें, स्पर्श भी न करें, मैं उन्हें रुग्ण मानता हूं, बीमार। स्वस्थ तो मैं उस बात को मानता हूं, जो जीवन में, जीवन की जो सहजता है, जो जीवन का निसर्ग भाव है, उसका जहां अंगीकार हो।
तो ऐसे धर्मशास्त्र भी हैं, जो स्त्री-पुरुष के बीच किसी तरह की कलह, द्वंद्व और संघर्ष नहीं करते। उन्हीं तरह के धर्मशास्त्रों का नाम तंत्र है। और मेरी मान्यता यह है कि जितनी गहरी पहुंच तंत्र की है जीवन के संबंध में, उतनी उन क्षुद्र शास्त्रों की नहीं है, जहां निषेध किया गया है।
मैं तो समर्थन में नहीं हूं। क्योंकि मेरी मान्यता ऐसी है कि जगत और परमात्मा दो नहीं हैं। परमात्मा जगत की ही गहनतम अनुभूति है। और मोक्ष कोई संसार के विपरीत नहीं है; बल्कि संसार के अनुभव में ही जाग जाने का नाम है।
तो मैं पूरे जीवन को स्वीकार करता हूं--उसके समस्त रूपों में। स्त्री-पुरुष इस जीवन के दो अनिवार्य अंग हैं। और एक अर्थ में पुरुष भी अधूरा है, और एक अर्थ में स्त्री भी अधूरी है। उनकी निकटता जितनी गहन हो सके, उतने ही ऐक्य का अनुभव शुरू होता है। तो मेरी दृष्टि में, स्त्री-पुरुष के प्रेम में परमात्मा की पहली झलक उपलब्ध होती है। और जिस व्यक्ति को स्त्री-पुरुष के प्रेम में परमात्मा की पहली झलक उपलब्ध नहीं होती, उसे कोई भी झलक उपलब्ध होनी मुश्किल है।
स्त्री-पुरुष के बीच जो आकर्षण है, वह अगर हम ठीक से समझें, तो जीवन का ही आकर्षण है। और गहरे समझें, तो स्त्री-पुरुष के बीच का जो आकर्षण है, वह परमात्मा की ही लीला का हिस्सा है, उसका ही आकर्षण है। तो मेरी दृष्टि में, उनके बीच के आकर्षण में कोई भी पाप नहीं है।
लेकिन, क्या कारण से स्त्री-पुरुष को कुछ धर्मों ने, कुछ धर्मशास्त्रों ने, कुछ धर्मगुरुओं ने एक शत्रुता का भाव पैदा करने की कोशिश की?
गहरे में एक ही कारण है। मनुष्य के अहंकार पर सबसे बड़ी चोट प्रेम में पड़ती है। जब एक पुरुष एक स्त्री के प्रेम में पड़ जाता है, या एक स्त्री एक पुरुष के प्रेम में पड़ती है, तो उन्हें अपना अहंकार तो छोड़ना ही पड़ता है। प्रेम की पहली चोट अहंकार पर होती है। तो जो अति अहंकारी हैं, वे प्रेम से बचेंगे। बहुत अहंकारी व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता, क्योंकि वह दांव पर लगाना पड़ेगा प्रेम में। प्रेम का मतलब ही यह है कि मैं अपने से ज्यादा मूल्यवान किसी दूसरे को मान रहा हूं। उसका मतलब ही यह है कि मेरा सुख गौण है अब, किसी दूसरे का सुख ज्यादा महत्वपूर्ण है। और जरूरत पड़े तो मैं अपने को पूरा मिटाने को राजी हूं, ताकि दूसरा बच सके। —ओशो
तो ऐसे धर्मशास्त्र भी हैं, जो स्त्री-पुरुष के बीच किसी तरह की कलह, द्वंद्व और संघर्ष नहीं करते। उन्हीं तरह के धर्मशास्त्रों का नाम तंत्र है। और मेरी मान्यता यह है कि जितनी गहरी पहुंच तंत्र की है जीवन के संबंध में, उतनी उन क्षुद्र शास्त्रों की नहीं है, जहां निषेध किया गया है।
मैं तो समर्थन में नहीं हूं। क्योंकि मेरी मान्यता ऐसी है कि जगत और परमात्मा दो नहीं हैं। परमात्मा जगत की ही गहनतम अनुभूति है। और मोक्ष कोई संसार के विपरीत नहीं है; बल्कि संसार के अनुभव में ही जाग जाने का नाम है।
तो मैं पूरे जीवन को स्वीकार करता हूं--उसके समस्त रूपों में। स्त्री-पुरुष इस जीवन के दो अनिवार्य अंग हैं। और एक अर्थ में पुरुष भी अधूरा है, और एक अर्थ में स्त्री भी अधूरी है। उनकी निकटता जितनी गहन हो सके, उतने ही ऐक्य का अनुभव शुरू होता है। तो मेरी दृष्टि में, स्त्री-पुरुष के प्रेम में परमात्मा की पहली झलक उपलब्ध होती है। और जिस व्यक्ति को स्त्री-पुरुष के प्रेम में परमात्मा की पहली झलक उपलब्ध नहीं होती, उसे कोई भी झलक उपलब्ध होनी मुश्किल है।
स्त्री-पुरुष के बीच जो आकर्षण है, वह अगर हम ठीक से समझें, तो जीवन का ही आकर्षण है। और गहरे समझें, तो स्त्री-पुरुष के बीच का जो आकर्षण है, वह परमात्मा की ही लीला का हिस्सा है, उसका ही आकर्षण है। तो मेरी दृष्टि में, उनके बीच के आकर्षण में कोई भी पाप नहीं है।
लेकिन, क्या कारण से स्त्री-पुरुष को कुछ धर्मों ने, कुछ धर्मशास्त्रों ने, कुछ धर्मगुरुओं ने एक शत्रुता का भाव पैदा करने की कोशिश की?
गहरे में एक ही कारण है। मनुष्य के अहंकार पर सबसे बड़ी चोट प्रेम में पड़ती है। जब एक पुरुष एक स्त्री के प्रेम में पड़ जाता है, या एक स्त्री एक पुरुष के प्रेम में पड़ती है, तो उन्हें अपना अहंकार तो छोड़ना ही पड़ता है। प्रेम की पहली चोट अहंकार पर होती है। तो जो अति अहंकारी हैं, वे प्रेम से बचेंगे। बहुत अहंकारी व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता, क्योंकि वह दांव पर लगाना पड़ेगा प्रेम में। प्रेम का मतलब ही यह है कि मैं अपने से ज्यादा मूल्यवान किसी दूसरे को मान रहा हूं। उसका मतलब ही यह है कि मेरा सुख गौण है अब, किसी दूसरे का सुख ज्यादा महत्वपूर्ण है। और जरूरत पड़े तो मैं अपने को पूरा मिटाने को राजी हूं, ताकि दूसरा बच सके। —ओशो
In this title, Osho talks on the following topics:यौन..., युवक..., प्रेम..., विवाह..., जनसंख्या..., नारी-क्रांति...., प्रेम...., क्रांति..., युवा-चित्त..., विद्रोह....
Publisher | ओशो मीडिया इंटरनैशनल |
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ISBN-13 | 978-0-88050-734-9 |
Number of Pages | 1254 |
File Size | 2.18 MB |
Format | Adobe ePub |
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