ताओ उपनिषद – Tao Upanishad,Vol.5
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ओशो द्वारा लाओत्से के ‘ताओ तेह किंग’ पर दिए गए अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।
ओशो द्वारा लाओत्से के ‘ताओ तेह किंग’ पर दिए गए अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।
ताओ उपनिषद – Tao Upanishad,Vol.5
एक ज्ञान है जो सीखने से मिलता है, और एक ऐसा भी ज्ञान है जो भूलने से मिलता है। एक ज्ञान है जो दौड़ने से मिलता है, और एक ऐसा भी ज्ञान है जो रुक जाने से मिलता है। एक ज्ञान है जिसे पाने के लिए महत यात्रा करनी पड़ती है, और एक ज्ञान है जिसे पाने के लिए केवल अपने भीतर झांक कर देखना काफी है।
जो ज्ञान श्रम से मिलता है वह ज्ञान बाहर का होगा। आखिरी अर्थों में उसका कोई भी मूल्य नहीं; आखिरी मंजिल पर दो कौड़ी भी उसका अर्थ नहीं। अंतिम अर्थों में तो जो अपने ही भीतर पाया है वही मूल्यवान होगा। क्योंकि जो ज्ञान हम बाहर से पाते हैं उससे हम स्वयं को न जान सकेंगे। और जिस ज्ञान से स्वयं का जानना न हो वह ज्ञान नहीं है, केवल अज्ञान को छिपाने का उपाय है। पांडित्य से प्रज्ञा उभरती नहीं है, सिर्फ छिप जाती है, ढंक जाती है। एक तो ज्ञान है खुले आकाश जैसा, जहां एक भी बादल नहीं है। और एक ज्ञान है, आकाश बादलों से भरा हो, जहां सब आच्छादित है।
मनुष्य की आत्मा आकाश जैसी है। न कहीं गई; न कहीं जाने को कोई जगह है। न कहीं से आई; न कहीं से आ सकती है। आकाश की तरह है; सदा है, सदा से थी, सदा होगी। कोई समय का, कोई स्थान का सवाल नहीं। तुमने कभी पूछा, आकाश कहां से आया? कहां जा रहा है? आकाश अपनी जगह है। आत्मा भी अपनी जगह है। आत्मा यानी भीतर का आकाश।
पर आकाश में भी बदलियां घिरती हैं, वर्षा के दिन आते हैं, आकाश आच्छादित हो जाता है। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता; उसकी नीलिमा बिलकुल खो जाती है। उसकी शून्यता का कोई दर्शन नहीं होता। सब तरफ घने बादल घिर जाते हैं। ऐसे ही चेतना के आकाश पर भी स्मृति के बादल घिरते हैं, विचार के, ज्ञान के--जो बाहर अर्जित किया हो। और जब बादल घिर जाते हैं तो भीतर की नीलिमा का भी कोई पता नहीं चलता; भीतर की शून्यता बिलकुल खो जाती है। भीतर का विराट क्षुद्र बदलियों से ढंक जाता है।
एक तो ज्ञान है बदलियों की भांति जिसे तुम दूसरों से प्राप्त करोगे, जिसे तुम किसी से सीखोगे। शास्त्र से, समाज से, संस्कार से तुम उसे संगृहीत करोगे। जितना संग्रह बढ़ता जाएगा, जितना पांडित्य घना होगा, उतना ही भीतर का आकाश ढंक जाएगा। उतने ही तुम भटक जाओगे। जितना जानोगे उतना भटकोगे।
इसलिए तो ईसाइयों की कहानी है कि जिस दिन अदम ने ज्ञान का फल चखा उसी दिन वह स्वर्ग से, बहिश्त से बाहर कर दिया गया। वह इसी ज्ञान की बात है जो बाहर से मिलता है। वह फल बाहर से चख लिया था। वह बाहर के बगीचे का फल था। उसे चखते ही अदम को क्या हुआ?
ईसाई कहते हैं कि अदम पापी हो गया। अगर लाओत्से से तुम पूछते, या मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा, अदम पंडित हो गया। और कहानी का ठीक अर्थ यही है। क्योंकि ज्ञान के फल के खाने को पाप से क्या संबंध है? ज्ञान के फल को खाकर कोई पंडित होगा; पापी कैसे हो जाएगा? अदम पंडित हो गया। —ओशो
जो ज्ञान श्रम से मिलता है वह ज्ञान बाहर का होगा। आखिरी अर्थों में उसका कोई भी मूल्य नहीं; आखिरी मंजिल पर दो कौड़ी भी उसका अर्थ नहीं। अंतिम अर्थों में तो जो अपने ही भीतर पाया है वही मूल्यवान होगा। क्योंकि जो ज्ञान हम बाहर से पाते हैं उससे हम स्वयं को न जान सकेंगे। और जिस ज्ञान से स्वयं का जानना न हो वह ज्ञान नहीं है, केवल अज्ञान को छिपाने का उपाय है। पांडित्य से प्रज्ञा उभरती नहीं है, सिर्फ छिप जाती है, ढंक जाती है। एक तो ज्ञान है खुले आकाश जैसा, जहां एक भी बादल नहीं है। और एक ज्ञान है, आकाश बादलों से भरा हो, जहां सब आच्छादित है।
मनुष्य की आत्मा आकाश जैसी है। न कहीं गई; न कहीं जाने को कोई जगह है। न कहीं से आई; न कहीं से आ सकती है। आकाश की तरह है; सदा है, सदा से थी, सदा होगी। कोई समय का, कोई स्थान का सवाल नहीं। तुमने कभी पूछा, आकाश कहां से आया? कहां जा रहा है? आकाश अपनी जगह है। आत्मा भी अपनी जगह है। आत्मा यानी भीतर का आकाश।
पर आकाश में भी बदलियां घिरती हैं, वर्षा के दिन आते हैं, आकाश आच्छादित हो जाता है। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता; उसकी नीलिमा बिलकुल खो जाती है। उसकी शून्यता का कोई दर्शन नहीं होता। सब तरफ घने बादल घिर जाते हैं। ऐसे ही चेतना के आकाश पर भी स्मृति के बादल घिरते हैं, विचार के, ज्ञान के--जो बाहर अर्जित किया हो। और जब बादल घिर जाते हैं तो भीतर की नीलिमा का भी कोई पता नहीं चलता; भीतर की शून्यता बिलकुल खो जाती है। भीतर का विराट क्षुद्र बदलियों से ढंक जाता है।
एक तो ज्ञान है बदलियों की भांति जिसे तुम दूसरों से प्राप्त करोगे, जिसे तुम किसी से सीखोगे। शास्त्र से, समाज से, संस्कार से तुम उसे संगृहीत करोगे। जितना संग्रह बढ़ता जाएगा, जितना पांडित्य घना होगा, उतना ही भीतर का आकाश ढंक जाएगा। उतने ही तुम भटक जाओगे। जितना जानोगे उतना भटकोगे।
इसलिए तो ईसाइयों की कहानी है कि जिस दिन अदम ने ज्ञान का फल चखा उसी दिन वह स्वर्ग से, बहिश्त से बाहर कर दिया गया। वह इसी ज्ञान की बात है जो बाहर से मिलता है। वह फल बाहर से चख लिया था। वह बाहर के बगीचे का फल था। उसे चखते ही अदम को क्या हुआ?
ईसाई कहते हैं कि अदम पापी हो गया। अगर लाओत्से से तुम पूछते, या मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा, अदम पंडित हो गया। और कहानी का ठीक अर्थ यही है। क्योंकि ज्ञान के फल के खाने को पाप से क्या संबंध है? ज्ञान के फल को खाकर कोई पंडित होगा; पापी कैसे हो जाएगा? अदम पंडित हो गया। —ओशो
In this title, Osho talks on the following topics:धारणा..., अहंकार....., जीवन...., मृत्यु....., पारनैतिक......, संगठन...., समझ...., प्रेम...., स्वतंत्रता...., स्त्रैण गुण.....
Type | फुल सीरीज |
---|---|
Publisher | ओशो मीडिया इंटरनैशनल |
ISBN-13 | 978-0-88050-732-5 |
Number of Pages | 3189 |
File Size | 4.33 MB |
Format | Adobe ePub |
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