मेरी प्रिय पुस्तकें - Meri Priy Pustaken

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यह एक अनूठी पुस्तक है। ‘नोट्‌स ऑफ ए मैडमैन’ और ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ ए गोल्डन चाइल्डहुड’ की तरह इसमें भी बस वही वैसा का वैसा लिख लिया गया है जो ओशो ने अपने डेंटल सेशन की अप्रत्याशित पृष्ठभूमि में वहां उपस्थित थोड़े से लोगों से कहा। यहां, एक अंतरंग माहौल में, ओशो ने अपनी संबुद्ध चेतना की असाधारण अंतरप्रज्ञा को अभिव्यक्ति दी है।
यह एक अनूठी पुस्तक है। ‘नोट्‌स ऑफ ए मैडमैन’ और ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ ए गोल्डन चाइल्डहुड’ की तरह इसमें भी बस वही वैसा का वैसा लिख लिया गया है जो ओशो ने अपने डेंटल सेशन की अप्रत्याशित पृष्ठभूमि में वहां उपस्थित थोड़े से लोगों से कहा। यहां, एक अंतरंग माहौल में, ओशो ने अपनी संबुद्ध चेतना की असाधारण अंतरप्रज्ञा को अभिव्यक्ति दी है।

भूमिका -

‘मेरी प्रिय पुस्तकें’ के बारे में एक मजेदार कहानी है... दंत चिकित्सा के एक सत्र के तुरंत बाद, ओशो ने अपनी डेंटल टीम--आशु, अमृतो और मुझे--उस समय बुला लिया जब एक भारी तूफान आया हुआ था। हम लोग उनके चरणों के पास फर्श पर बैठ गए तब उन्होंने एक पुस्तक के संबंध में अपना दृष्टिकोण प्रकट किया जिसे वे अपनी डेंटल चेयर पर बैठे हुए ही बोल कर लिखवाना चाहते थे। ‘‘...और तुम, देवगीत, मेरे नोट्‌स लिखोगे।’’ वे शब्द आज भी मेरे हृदय में अंकित हैं। ओशो ने आगे कहा, ‘‘ये पुस्तकें ऐसी होंगी कि जिनसे मेरे लोग यह जान सकेंगे कि जब कोई सदगुरु सिर्फ अपने दो या तीन अंतरंग शिष्यों के साथ हो तो वह किस तरह बोलता है।’’ पहले तो मुझे जरा भी अनुमान नहीं था कि एक से अधिक पुस्तकें हो सकती हैं: ओशो सहज रूप से बोल रहे थे, और मैं वह सब-कुछ लिख रहा था: साथ ही साथ उसे बाद में जांचने के लिए टेप-रिकॉर्डर पर रिकॉर्ड भी कर रहा था, जिसके बारे में ओशो का निर्देश था,...‘‘एक ही कैसेट होना चाहिए, हर दिन उसी का उपयोग करो।’’ छह सत्रों के बाद ओशो ने कहा: ‘‘यह पहली श्रृंखला समाप्त होती है।’’

यह पहली बार मैंने सुना कि इसमें अलग-अलग श्रृंखलाएं होने वाली हैं। अगली श्रृंखला को ओशो ने नाम दिया: ॐ मणि पद्मे हुम्‌। ‘‘यह एक प्राचीन मंत्र है, देवगीत, और मैं इस पर तब तक बोलता रहूंगा जब तक कि मैं तुम्हारी इस पत्थर जैसी ठोस खोपड़ी में प्रवेश न कर जाऊं। मैं इसे तब तक नहीं छोडूंगा जब तक कि यह तुम्हारे भीतरी अंतर्तम में प्रविष्ट न हो जाए। तुम जिद्दी हो, लेकिन मैं महा जिद्दी हूं! कोई भी आदमी मुझसे अधिक जिद्दी नहीं हो सकता! मैं भयानक भी हो सकता हूं!’’ वे इस मंत्र पर बोले, इस दूसरी श्र्ृंखला में, छह सत्रों के लिए। इन दोनों श्रृंखलाओं के संकलन ने ‘नोट्‌स ऑफ ए मैडमैन’ नामक पुस्तक का रूप ले लिया। फिर ओशो ने कहा: ‘‘मैंने अपने पूरे जीवन पुस्तकों से प्रेम किया है। इन्होंने मेरी उस समय सहायता की है जब गहन अंधकार में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। याद रखो, मेरा कोई गुरु नहीं था...कभी भी नहीं, मेरे किसी पिछले जीवन काल में भी नहीं। बहुत से सदगुरु चाहते थे कि मैं उनका शिष्य बन जाऊं, किंतु मैंने हमेशा यही कहा कि मुझे अपने स्वयं के मार्ग पर ही चलना है, भले ही कितना समय लगे, या यह मुझे कहीं भी ले जाए।

 

‘‘ऐसी बहुत सी पुस्तकें हैं जिनमें सत्य का स्वाद है, किंतु स्वाद से अधिक कुछ भी नहीं। फिर भी कुछ पुस्तकें हैं जो वास्तव में सहायक हो सकती हैं। ऐसी पुस्तकें लोगों को सत्य के उस गीत को सुनने में सहायता करती हैं जो उनके हृदय में गूंज रहा है। यही वे पुस्तकें हैं जो अब मेरा द्वार खटखटा रही हैं, मुझसे कह रही हैं कि मैं उनके बारे में बोलूं। मैं अब तक के अपने जीवन के प्रत्येक वर्ष के लिए एक-एक पुस्तक का उल्लेख करूंगा।’’ (उस समय उनकी आयु पचास वर्ष थी।) ओशो ने बोलना शुरू किया, और जैसे-जैसे वे बोलते रहे मैं लिखता रहा। वे अपने शयन कक्ष के ठीक पीछे स्थित दंत चिकित्सा कक्ष में अपनी डेंटल चेयर पर लेटे हुए थे। आशु, ओशो की डेंटल नर्स उनके बाईं ओर बैठी थी; उनके पैरों के पास उनका निजी चिकित्सक अमृतो बैठा हुआ था; और ओशो की निजी परिचारिका विवेक एक स्टूल पर बैठी हुई थी। यह पूरा कक्ष नौ फीट लंबा और सात फीट चौड़ा था जो डेंटल मशीनों से पूरा भरा हुआ था। यह किसी अंतरिक्ष यान के चालक कक्ष जैसा प्रतीत हो रहा था। बोलते हुए ओशो विनोदपूर्ण थे और मैं अपने काम में पूरी तरह डूबा हुआ था। अचानक उन्होंने पूछा: ‘‘देवगीत, यह कौनसे नंबर की पुस्तक है? तुम जानते ही हो कि मुझे तीन के बाद की संख्याएं याद नहीं रहतीं।’’ मैंने जल्दी से पन्ने पलट कर देखा और कहा: ‘‘यह पांचवीं पुस्तक थी, ओशो।’’ ‘‘ठीक है, अच्छा, अब पांचवीं...’’ और तब वे एक दूसरे शीर्षक पर बोलने लगे जो उन्हें प्रिय था। मैं असमंजस में था। मेरा अभिप्राय था कि पिछली पुस्तक का नंबर पांचवां था, और यह पुस्तक छठवीं होनी चाहिए। अब हमारे पास पांचवें नंबर पर दो पुस्तकें हैं! खैर कोई बात नहीं इसे मैं बाद में स्पष्ट करूंगा। करीब आधे घंटे बाद उन्होंने फिर पूछा: ‘‘अब कौन सा नंबर है, देवगीत?’’ जल्दी से सोचते हुए मैंने कहा, ‘‘अगली पुस्तक आठवीं होगी, ओशो।’’ मैंने मन ही मन हिसाब लगाया था कि अब कौनसे नंबर की पुस्तक होनी चाहिए।

 

‘‘ठीक है, अब नौवीं...’’ ओशो ने बोलना शुरू किया। अरे नहीं! इस बार तो वे आगे बढ़ गए हैं। मैं असमंजस में था, और उस समय इस बारे में सोचने का समय भी नहीं था, क्योंकि मैं नोट्‌स बनाने और प्रत्येक शब्द को समझने में पूरी तरह व्यस्त था। उन्होंने मुझसे कहा था कि वे प्रत्येक सत्र में दस पुस्तकों पर बोलेंगे, लेकिन मुझे नहीं पता कि वे कितनी पुस्तकों पर बोल चुके हैं। हमारे पास पांचवें नंबर पर दो पुस्तकें थीं, आठवें नंबर पर कोई नहीं थी, और अब हम नौवें नंबर पर थे! वह सत्र मात्र नौ ही पुस्तकों में समाप्त हो गया। मैं अपने कमरे में लौट आया, मैंने अपने सारे नोट्‌स देखे और नंबरों को व्यवस्थित किया, फिर पूरे मसले को विवेक को बताया। उसने कहा, तुम ही नोट्‌स लिखने वाले होे, इसलिए सारी जिम्मेवारी तुम्हारी है! अगला सत्र उसी दिन शाम को था और मैं इस काम को पटरी पर ले आने का निश्चय कर चुका था। इस सत्र में कोई आधा घंटे बाद ओशो ने पूछा कि हम लोग किस नंबर की पुस्तक पर थे। मैंने उत्तर दिया: ‘‘ओशो, यह पिछली पुस्तक दूसरे नंबर की थी।’’ ‘‘ठीक है, अब दूसरी...’’ और उन्होंने तुरंत बोलना शुरू कर दिया। मैंने महसूस किया कि मैं उन्हें रोक नहीं सकता। यह ठीक नहीं होगा। उस समय मैं केवल उनके उत्तर देने के क्रम में ही बोलूंगा और कोई बातचीत नहीं शुरू करूंगा। लेकिन इस समय हमारे पास दूसरे नंबर पर दो पुस्तकें हैं। अगली पुस्तक को उन्होंने नंबर पांच कह दिया! जब वे बोल चुके, तो उन्होंने मुझसे पूछा कि हम कहां थे। मैंने उत्तर दिया, ‘‘जी, यह नंबर पांच थी, लेकिन वास्तव में इसे होना चाहिए नंबर...चार?’’ ओशो कुछ लंबे पलों तक मौन रहे। ‘‘ठीक है, किंतु याद रहे, देवगीत, मेरे नंबर का ही अनुसरण करो। अब नंबर तीन!’’ और एक बार फिर से ओशो अपनी प्रिय पुस्तकों में से एक पर विस्तार से बोलने लगे। मैंने उसके नोट तो ले लिए, लेकिन क्रम के बारे में मेरा दिमाग पूरी तरह गड्डमड्ड हो गया था। उन्होंने कहा कि अगली पुस्तक ‘‘नंबर चार है’’...और इसी तरह आगे भी होता रहा। मैं बिलकुल उलझ गया था।

 

कुछ देर बाद उन्होंने पूछा नंबर के हिसाब से हम कहां थे, और मैंने बताया, ‘‘मैं नहीं कह सकता कि हम कहां थे। मैं इसे बाद में सुलझाऊंगा, फिर भी मैं सोचता हूं कि हम नंबर छह पर थे।’’ ‘‘ठीक है देवगीत, अगली पुस्तक सातवीं है, लेकिन याद रखो कि यह तुम्हारा काम है। मैंने अपने नोट्‌स लिखने वाला तुमको बनाया है।’’ मेरे विचार से उस सत्र में वे बारह पुस्तकों पर बोले। हमारे पास तीसरे नंबर पर दो पुस्तकें, नंबर चार पर कोई नहीं, छठवें नंबर पर तीन पुस्तकें, आठवें पर दो, नौवें पर दो और दसवें नंबर पर एक पुस्तक है। अधिकतर सत्र इसी तरह के रहे हैं, पर सभी नहीं। यही बात सबसे गड़बड़ रही। मैं कभी भी निश्चित नहीं कर सकता था कि कब क्या होगा। मेरा सिर घूम रहा था। कुछ सत्रों के बाद ओशो ने पूछा कि हम लोग कुल मिला कर कितनी पुस्तकों के बारे में बात कर चुके हैं। तो मैंने उत्तर दिया कि असमंजस के कारण मैं पुस्तकों की सही संख्या नहीं बता सकता, मैं इस पर काम करूंगा और नये सत्र में उनको बता दूंगा। ये लगभग बासठ होनी चाहिए। हालांकि मैं निश्चित तौर पर नहीं कह सकता, मैं बहुत असमंजस में था। जब मैंने यह कहा, तो एक लंबे और मर्मभेदी मौन के बाद ओशो बोले: ‘‘देवगीत, मैं ऐसा हूं कि संख्याओं का हिसाब-किताब नहीं रखता। इस बात के लिए मैं तुम पर निर्भर हूं। मेरे नोट्‌स लिखने वाले तुम हो। यह तुम्हारा काम है। मेरा काम तो तुम पर काम करने का है। मेरा काम तो तुम्हारी खोपड़ी खोलने का है। अब से मैं अपने जीवन के प्रत्येक वर्ष के लिए दो पुस्तकों पर बोलूंगा।’’ और उन्होंने फिर बोलना शुरू किया, पर इससे कोई अंतर नहीं हुआ। हर सत्र में वे मेरे मस्तिष्क में गांठ लगा देते। मैं जान ही नहीं पाता कि संख्याओं के हिसाब से हम आगे बढ़ रहे हैं या पीछे जा रहे हैं। मैं अगर इसे एक तरह से कहता, तो वे दूसरे तरह से करते...या नहीं भी करते।

 

कई सत्रों के बाद एक बार फिर उन्होंने पूछा कि कुल कितनी पुस्तकें हो चुकी हैं। मुझे इस बारे में कोई खयाल नहीं था। मैंने कोशिश जरूर की, परंतु सफल नहीं हो पाया। जब मैं उन्हें यह बताने का प्रयास करने लगा, तो मेरी हर फुसफुसाहट और हर अपूर्ण शब्द अर्थहीनता में खोते हुए उनके गहन मौन में समा गए। उन्होंने सहज भाव से इसे सुन लिया। तब वे बोले, ‘‘हूं... यह एक अस्तित्वगत समस्या है। ऐसी बहुत सी पुस्तकें हैं जो मेरा द्वार खटखटा रही हैं। उनमें से कुछ बहुत हठी हैं, जो पंक्ति तोड़ कर आगे पहुंचने की कोशिश कर रही हैं। कुछ लोग जैसे मैडम ‘ब्लावट्‌स्की’...।’’ (वे उसके नाम को हमेशा गड्डमड्ड कर देते।) ‘‘वह एक भयानक महिला है। वह गौतम बुद्ध जैसे मौन में डूबे हुए लोगों को एक तरफ धकेल रही है। वे लोग जो वास्तव में मौन हो चुके हैं, जिनकी पुस्तकें सच में हीरे हैं, कभी भी धक्कामुक्की नहीं करते। पर मैं इस महिला ब्ला-ब्ला (बकबक) ब्लावट्‌स्की पर अवश्य बोलूंगा, अन्यथा वह मुझे चैन नहीं लेने देगी। वह वास्तव में ब्ला-ब्ला-बलावट्स्की ही है! मैं एक मात्र व्यक्ति होऊंगा जिसने उसके लिखे हुए प्रत्येक शब्द को पढ़ा होगा। मैंने यह जानने के लिए उसके शब्दों का पूरा हिमालय खोद डाला कि क्या उनमें कोई सत्य था। जो मैंने पाया वह था एक मरा चूहा!’’

 

अदभुत हैं ओशो! आज उन दिनों का जिक्र कर रहा हूं जब हम ओशो के साथ उनके डेंटल रूम में बैठते थे, जिसे वे ‘‘नूह की नाव’’ कहते थे, तो सारी स्मृतियां बाढ़ की तरह उमड़ी आ रही हैं। मेरा हृदय भरा हुआ है और आंखों में आंसू झिलमिला रहे हैं। उन्होंने बेचारे मेरे मस्तिष्क को तो कशमकश में डाल दिया और हृदय को उसके कारागार से मुक्त कर दिया।

देवगीत ओशो के दंत चिकित्सक
इस पुस्तक में ओशो निम्नलिखित विषयों पर बोले हैं:
मौन, शून्यता, निष्कर्ष, ईश्वर, सूफी, बादरायण, बाल सेम तोव, बेनेट, खलील जिब्रान, तारण तरण

In this title, Osho talks on the following topics:
मौन, शून्यता, निष्कर्ष, ईश्वर, सूफी, बादरायण, बाल सेम तोव, बेनेट, खलील जिब्रान, तारण तरण
अधिक जानकारी
Type फुल सीरीज
Publisher OSHO Media International
ISBN 978-0-88050-752-3
ISBN-13 978-0-88050-752-3
Number of Pages 868
File Size 1.71 MB
Format Adobe ePub