अष्टावक्र : महागीता—भाग नौ – Ashtavakra Mahagita, Vol.9
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अष्टावक्र-संहिता के सूत्रों पर प्रश्नोत्तर सहित पुणे में हुई सीरीज के अंतर्गत दी गईं 91 OSHO Talks में से 11 (81 से 91) OSHO Talks
अष्टावक्र-संहिता के सूत्रों पर प्रश्नोत्तर सहित पुणे में हुई सीरीज के अंतर्गत दी गईं 91 OSHO Talks में से 11 (81 से 91) OSHO Talks
उद्धरण:अष्टावक्र महागीता, भाग नौ : #9 सरलतम घटना: परमात्मा
प्रेम है साक्षी का संगीत। प्रेम है साक्षी की सुवास। जब कोई साक्षी हो जाता है तो ही प्रेम झरता है। निश्चित ही अष्टावक्र ने इस प्रेम की कोई बात नहीं की-- जान कर। यह जान कर कि तुम जिसे प्रेम कहते हो, कहीं तुम भूल से उसी को न समझ लो।
इसलिए अष्टावक्र ने साक्षी की बात कही, प्रेम की बात छोड़ दी। बीज की बात कही, वृक्ष की बात कही, फल की बात छोड़ दी--फल तो आएगा। तुम बीज बोओ, वृक्ष सम्हालो, पानी दो, बागवानी करते रहो, फल तो आएगा। जब आएगा तब आ जाएगा, उसकी क्या बात करनी है।
इसलिए जानकर अष्टावक्र ने प्रेम की बात छोड़ दी। क्योंकि प्रेम की बात करने का एक खतरा सदा से है और वह खतरा यह है कि तुम भी प्रेम करते हो, ऐसा तुम मानते हो। तुमने भी एक तरह का प्रेम जाना है, प्रेम शब्द से कहीं तुम यह न समझ लो कि तुम्हारा प्रेम और अष्टावक्र का प्रेम एक ही है। इस खतरे से बचने के लिए अष्टावक्र ने प्रेम की बात नहीं की। जानकर छोड़ दी।
मैं जान कर नहीं छोड़ रहा हूं। क्यों? क्योंकि एक दूसरा खतरा हो गया है। वह खतरा यह हुआ कि चूंकि अष्टावक्र ने प्रेम की बात नहीं की, न मालूम कितने लोग खड़े हो गये जिन्होंने समझा कि प्रेम पाप है। न-मालूम कितने लोग खड़े हो गये जिन्होंने कहा कि जिसको साक्षी होना है, उसको तो प्रेम को जड़मूल से काट डालना होगा। यह दूसरी भ्रांति हो गयी।
अष्टावक्र ने एक भ्रांति बचायी थी कि कहीं तुम तुम्हारे कामवासना से भरे हुए प्रेम को प्रेम न समझ लो, तो दूसरी भ्रांति हो गयी। आदमी कुछ ऐसा है कि कुएं से बचाओ तो खाई में गिरेगा। मगर गिरेगा। बिना गिरे न रहेगा। एक भ्रांति से बचाओ दूसरी भ्रांति बना लेगा। क्योंकि बिना भ्रांति के आदमी रहना ही नहीं चाहता। भ्रांति में उसे सुख है। तो संसारी कहीं भटक न जाए, वह यह न समझ ले कि मेरा प्रेम ही वह प्रेम है जिसकी अष्टावक्र बात कर रहे हैं, ऐसी भ्रांति न हो, अष्टावक्र प्रेम के संबंध में नहीं बोले। लेकिन अष्टावक्र को यह खयाल न रहा कि इस संसार में संन्यासी भी हैं, जो अनुकरण करने में लगे हैं। जो नकलची हैं, कार्बन कापी हैं। उन्होंने देखा कि साक्षी में तो प्रेम की बात ही नहीं, तो प्र्रेम को जड़मूल से काट दो। प्रेमशून्य हो जाओ तब साक्षी हो सकोगे। यह और भी खतरनाक भ्रांति है, इसलिए मैं जानकर प्रेम को जोड़ रहा हूं।
मेरे देखे पहला खतरा इतना बुरा नहीं है। क्योंकि तुम जिसे प्रेम कहते हो, माना कि वह पूरा-पूरा प्रेम नहीं है, लेकिन कुछ झलक उसमें उस प्रेम की भी है जिसकी साक्षी की स्थिति में अंतिम रूप से प्रस्फुटना होती है। जो विकसित होता है आखिरी क्षण में उसकी कुछ झलक तुम्हारे प्रेम में भी है। माना कि मिट्टी और कमल में क्या जोड़ है, लेकिन जब कमल खिलता है तो मिट्टी के रस से ही खिलता है। ऐसे कमल और मिट्टी को, दोनों को रखकर देखो तो कुछ भी समझ में नहीं आता कि इनमें क्या संबंध हो सकता है! लेकिन सब कमल मिट्टी सेे ही खिलते हैं, बिना मिट्टी के न खिल सकेंगे। फिर भी मिट्टी कमल नहीं है। और ध्यान रहे कि मिट्टी में कमल छिपा पड़ा है। प्रच्छन्न है। गुप्त है। प्रगट होगा। तुम जिसे कामवासना कहते हो, उसमें परमात्मा का कमल छिपा पड़ा है। मिट्टी है, कीचड़ है तुम्हारी कामवासना, बिलकुल कीचड़ है, बदबू उठ रही उससे, लेकिन मैं जानता हूं कि उसी से कमल भी खिलेगा।
तो अष्टावक्र ने एक भूल से बचाना चाहा कि कहीं तुम कीचड़ को ही कमल न समझ कर पूजा करने लगो--बड़ी उनकी अनुकंपा थी--लेकिन तब कुछ लोग पैदा हुए, उन्होंने कहा कि कीचड़ तो कमल है ही नहीं इसलिए कीचड़ से छुटकारा कर लो। कीचड़ से छुटकारा कर लिया, कमल नहीं खिला, क्योंकि कीचड़ के बिना कमल खिलता नहीं। वह दूसरी गलती हो गयी जो बड़ी गलती है। पहली गलती से ज्यादा बड़ी गलती है। क्योंकि पहली गलती वाला तो शायद कभी न कभी कमल तक पहुंच जाता--कीचड़ तो थी, संभावना तो थी, कीचड़ में छिपा हुआ कमल का रूप तो था; प्रगट नहीं था, अप्रगट था, धुंधला-धुंधला था, था तो; खोज लेता, टटोल लेता--लेकिन जिस व्यक्ति ने प्रेम की धारा सुखा दी, कीचड़ से छुटकारा पा लिया, उसके जीवन में तो कमल की कोई संभावना न रही। पहले के जीवन में संभावना थी, दूसरे के जीवन में संभावना न रही।
साक्षी का फल प्रेम है। मैं तुम्हें दोनों को साथ-साथ देना चाहता हूं। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं कि तुम्हारा प्रेम, प्रेम नहीं है, और अभी प्रेम को यात्रा लेनी है। तुम्हारे प्रेम को अभी और विकास लेना है, तुम्हारे प्रेम से अभी और-और फूल खिलने हैं, तुम अपने प्रेम पर रुक मत जाना। लेकिन तुमसे मैं यह भी कहना चाहता हूं कि तुम्हारे प्रेम को काट भी मत डालना, क्योंकि वह जो होने वाला है, इसमें ही छिपा है। वह वृक्ष इसी बीज में छिपा है। ओशो
इस पुस्तक में ओशो निम्नलिखित विषयों पर बोले हैं:
श्रवण, आत्मविश्लेषण, समत्व, ज्ञान, प्रेम, प्रार्थना, साक्षी, मृत्यु, शिवपुरी बाबा, सिग्मंड फ्रायड
इसलिए अष्टावक्र ने साक्षी की बात कही, प्रेम की बात छोड़ दी। बीज की बात कही, वृक्ष की बात कही, फल की बात छोड़ दी--फल तो आएगा। तुम बीज बोओ, वृक्ष सम्हालो, पानी दो, बागवानी करते रहो, फल तो आएगा। जब आएगा तब आ जाएगा, उसकी क्या बात करनी है।
इसलिए जानकर अष्टावक्र ने प्रेम की बात छोड़ दी। क्योंकि प्रेम की बात करने का एक खतरा सदा से है और वह खतरा यह है कि तुम भी प्रेम करते हो, ऐसा तुम मानते हो। तुमने भी एक तरह का प्रेम जाना है, प्रेम शब्द से कहीं तुम यह न समझ लो कि तुम्हारा प्रेम और अष्टावक्र का प्रेम एक ही है। इस खतरे से बचने के लिए अष्टावक्र ने प्रेम की बात नहीं की। जानकर छोड़ दी।
मैं जान कर नहीं छोड़ रहा हूं। क्यों? क्योंकि एक दूसरा खतरा हो गया है। वह खतरा यह हुआ कि चूंकि अष्टावक्र ने प्रेम की बात नहीं की, न मालूम कितने लोग खड़े हो गये जिन्होंने समझा कि प्रेम पाप है। न-मालूम कितने लोग खड़े हो गये जिन्होंने कहा कि जिसको साक्षी होना है, उसको तो प्रेम को जड़मूल से काट डालना होगा। यह दूसरी भ्रांति हो गयी।
अष्टावक्र ने एक भ्रांति बचायी थी कि कहीं तुम तुम्हारे कामवासना से भरे हुए प्रेम को प्रेम न समझ लो, तो दूसरी भ्रांति हो गयी। आदमी कुछ ऐसा है कि कुएं से बचाओ तो खाई में गिरेगा। मगर गिरेगा। बिना गिरे न रहेगा। एक भ्रांति से बचाओ दूसरी भ्रांति बना लेगा। क्योंकि बिना भ्रांति के आदमी रहना ही नहीं चाहता। भ्रांति में उसे सुख है। तो संसारी कहीं भटक न जाए, वह यह न समझ ले कि मेरा प्रेम ही वह प्रेम है जिसकी अष्टावक्र बात कर रहे हैं, ऐसी भ्रांति न हो, अष्टावक्र प्रेम के संबंध में नहीं बोले। लेकिन अष्टावक्र को यह खयाल न रहा कि इस संसार में संन्यासी भी हैं, जो अनुकरण करने में लगे हैं। जो नकलची हैं, कार्बन कापी हैं। उन्होंने देखा कि साक्षी में तो प्रेम की बात ही नहीं, तो प्र्रेम को जड़मूल से काट दो। प्रेमशून्य हो जाओ तब साक्षी हो सकोगे। यह और भी खतरनाक भ्रांति है, इसलिए मैं जानकर प्रेम को जोड़ रहा हूं।
मेरे देखे पहला खतरा इतना बुरा नहीं है। क्योंकि तुम जिसे प्रेम कहते हो, माना कि वह पूरा-पूरा प्रेम नहीं है, लेकिन कुछ झलक उसमें उस प्रेम की भी है जिसकी साक्षी की स्थिति में अंतिम रूप से प्रस्फुटना होती है। जो विकसित होता है आखिरी क्षण में उसकी कुछ झलक तुम्हारे प्रेम में भी है। माना कि मिट्टी और कमल में क्या जोड़ है, लेकिन जब कमल खिलता है तो मिट्टी के रस से ही खिलता है। ऐसे कमल और मिट्टी को, दोनों को रखकर देखो तो कुछ भी समझ में नहीं आता कि इनमें क्या संबंध हो सकता है! लेकिन सब कमल मिट्टी सेे ही खिलते हैं, बिना मिट्टी के न खिल सकेंगे। फिर भी मिट्टी कमल नहीं है। और ध्यान रहे कि मिट्टी में कमल छिपा पड़ा है। प्रच्छन्न है। गुप्त है। प्रगट होगा। तुम जिसे कामवासना कहते हो, उसमें परमात्मा का कमल छिपा पड़ा है। मिट्टी है, कीचड़ है तुम्हारी कामवासना, बिलकुल कीचड़ है, बदबू उठ रही उससे, लेकिन मैं जानता हूं कि उसी से कमल भी खिलेगा।
तो अष्टावक्र ने एक भूल से बचाना चाहा कि कहीं तुम कीचड़ को ही कमल न समझ कर पूजा करने लगो--बड़ी उनकी अनुकंपा थी--लेकिन तब कुछ लोग पैदा हुए, उन्होंने कहा कि कीचड़ तो कमल है ही नहीं इसलिए कीचड़ से छुटकारा कर लो। कीचड़ से छुटकारा कर लिया, कमल नहीं खिला, क्योंकि कीचड़ के बिना कमल खिलता नहीं। वह दूसरी गलती हो गयी जो बड़ी गलती है। पहली गलती से ज्यादा बड़ी गलती है। क्योंकि पहली गलती वाला तो शायद कभी न कभी कमल तक पहुंच जाता--कीचड़ तो थी, संभावना तो थी, कीचड़ में छिपा हुआ कमल का रूप तो था; प्रगट नहीं था, अप्रगट था, धुंधला-धुंधला था, था तो; खोज लेता, टटोल लेता--लेकिन जिस व्यक्ति ने प्रेम की धारा सुखा दी, कीचड़ से छुटकारा पा लिया, उसके जीवन में तो कमल की कोई संभावना न रही। पहले के जीवन में संभावना थी, दूसरे के जीवन में संभावना न रही।
साक्षी का फल प्रेम है। मैं तुम्हें दोनों को साथ-साथ देना चाहता हूं। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं कि तुम्हारा प्रेम, प्रेम नहीं है, और अभी प्रेम को यात्रा लेनी है। तुम्हारे प्रेम को अभी और विकास लेना है, तुम्हारे प्रेम से अभी और-और फूल खिलने हैं, तुम अपने प्रेम पर रुक मत जाना। लेकिन तुमसे मैं यह भी कहना चाहता हूं कि तुम्हारे प्रेम को काट भी मत डालना, क्योंकि वह जो होने वाला है, इसमें ही छिपा है। वह वृक्ष इसी बीज में छिपा है। ओशो
इस पुस्तक में ओशो निम्नलिखित विषयों पर बोले हैं:
श्रवण, आत्मविश्लेषण, समत्व, ज्ञान, प्रेम, प्रार्थना, साक्षी, मृत्यु, शिवपुरी बाबा, सिग्मंड फ्रायड
Type | फुल सीरीज |
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Publisher | ओशो मीडिया इंटरनैशनल |
ISBN-13 | 978-0-88050-894-0 |
Format | Adobe ePub |
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