असंभव क्रांति – Asambhav Kranti

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ध्यान साधना शिविर, माथेरान में प्रश्नोत्तर सहित हुई प्रवचनमाला के अंतर्गत ओशो द्वारा दिए गए दस
ध्यान साधना शिविर, माथेरान में प्रश्नोत्तर सहित हुई प्रवचनमाला के अंतर्गत ओशो द्वारा दिए गए दस

उद्धरण: असंभव क्रांति, दूसरा प्रवचन
"हम देखते हैं कि धार्मिक आदमी से ज्यादा गुलाम आदमी दिखाई नहीं पड़ता दुनिया में। होना उलटा था: धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक प्रतिमा होता, धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक गरिमा लिए होता, धार्मिक आदमी के जीवन से स्वतंत्रता की किरणें फूटती होतीं, वह एक मुक्त पुरुष होता, उसके चित्त पर कोई गुलामी न होती। लेकिन धार्मिक आदमी सबसे ज्यादा गुलाम है, इसीलिए धर्म सब झूठा सिद्ध हो गया है।… लोग मरघट पर अरथी ले जाते मैं देखता हूं, तो कंधे बदलते रहते हैं रास्ते में। इस कंधे पर रखी थी अरथी, फिर इस कंधे पर रख लेते हैं। कंधा बदलने से थोड़ी राहत मिलती होगी। इस कंधे पर वजन कम हो जाता है, यह थक जाता है तो फिर दूसरा कंधा। थोड़ी देर बाद फिर उनको मैं कंधे बदलते देखता हूं, फिर इस कंधे पर ले लेते हैं। कंधे बदल जाते हैं, लेकिन आदमी के ऊपर वह अरथी का बोझ तो तैयार ही रहता है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कंधे बदल लिए। थोड़ी देर राहत मिलती है, दूसरा कंधा फिर तैयार हो जाता है।

इसी तरह दुनिया में इतने धर्म पैदा हो गए, कंधे बदलने के लिए। नहीं तो कोई और कारण नहीं था कि ईसाई हिंदू हो जाता, हिंदू ईसाई हो जाता। एक पागलपन से छूटता है, दूसरा पागलपन हमेशा तैयार है। दुनिया में तीन सौ धर्म पैदा हो गए हैं, कंधे बदलने की सुविधा के लिए, और कोई उपयोग नहीं है। जरा भी उपयोग नहीं है। और भ्रांति यह पैदा होती है कि मैं एक गुलामी से छूटा, अब मैं आजादी की तरफ जा रहा हूं।

मैं आपको कोई नई गुलामी का संदेश देने को नहीं हूं। गुलामी से गुलामी की तरफ नहीं, गुलामी से स्वतंत्रता की तरफ यात्रा करनी है। वह मेरी बात मान कर नहीं हो सकता है। इसलिए मेरी बात मानने की जरा भी जरूरत नहीं है। मैं कहीं भी आपके रास्ते में खड़ा नहीं होना चाहता हूं। मैंने निवेदन कर दी अपनी बात, उसे सोचने-समझने की है। अगर वह फिजूल मालूम पड़े, तो उसे एकदम फेंक देना।"—ओशो "हम देखते हैं कि धार्मिक आदमी से ज्यादा गुलाम आदमी दिखाई नहीं पड़ता दुनिया में। होना उलटा था: धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक प्रतिमा होता, धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक गरिमा लिए होता, धार्मिक आदमी के जीवन से स्वतंत्रता की किरणें फूटती होतीं, वह एक मुक्त पुरुष होता, उसके चित्त पर कोई गुलामी न होती। लेकिन धार्मिक आदमी सबसे ज्यादा गुलाम है, इसीलिए धर्म सब झूठा सिद्ध हो गया है।… लोग मरघट पर अरथी ले जाते मैं देखता हूं, तो कंधे बदलते रहते हैं रास्ते में। इस कंधे पर रखी थी अरथी, फिर इस कंधे पर रख लेते हैं। कंधा बदलने से थोड़ी राहत मिलती होगी। इस कंधे पर वजन कम हो जाता है, यह थक जाता है तो फिर दूसरा कंधा। थोड़ी देर बाद फिर उनको मैं कंधे बदलते देखता हूं, फिर इस कंधे पर ले लेते हैं। कंधे बदल जाते हैं, लेकिन आदमी के ऊपर वह अरथी का बोझ तो तैयार ही रहता है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कंधे बदल लिए। थोड़ी देर राहत मिलती है, दूसरा कंधा फिर तैयार हो जाता है।

इसी तरह दुनिया में इतने धर्म पैदा हो गए, कंधे बदलने के लिए। नहीं तो कोई और कारण नहीं था कि ईसाई हिंदू हो जाता, हिंदू ईसाई हो जाता। एक पागलपन से छूटता है, दूसरा पागलपन हमेशा तैयार है। दुनिया में तीन सौ धर्म पैदा हो गए हैं, कंधे बदलने की सुविधा के लिए, और कोई उपयोग नहीं है। जरा भी उपयोग नहीं है। और भ्रांति यह पैदा होती है कि मैं एक गुलामी से छूटा, अब मैं आजादी की तरफ जा रहा हूं।

मैं आपको कोई नई गुलामी का संदेश देने को नहीं हूं। गुलामी से गुलामी की तरफ नहीं, गुलामी से स्वतंत्रता की तरफ यात्रा करनी है। वह मेरी बात मान कर नहीं हो सकता है। इसलिए मेरी बात मानने की जरा भी जरूरत नहीं है। मैं कहीं भी आपके रास्ते में खड़ा नहीं होना चाहता हूं। मैंने निवेदन कर दी अपनी बात, उसे सोचने-समझने की है। अगर वह फिजूल मालूम पड़े, तो उसे एकदम फेंक देना।"—ओशो "हम देखते हैं कि धार्मिक आदमी से ज्यादा गुलाम आदमी दिखाई नहीं पड़ता दुनिया में। होना उलटा था: धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक प्रतिमा होता, धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक गरिमा लिए होता, धार्मिक आदमी के जीवन से स्वतंत्रता की किरणें फूटती होतीं, वह एक मुक्त पुरुष होता, उसके चित्त पर कोई गुलामी न होती। लेकिन धार्मिक आदमी सबसे ज्यादा गुलाम है, इसीलिए धर्म सब झूठा सिद्ध हो गया है।… लोग मरघट पर अरथी ले जाते मैं देखता हूं, तो कंधे बदलते रहते हैं रास्ते में। इस कंधे पर रखी थी अरथी, फिर इस कंधे पर रख लेते हैं। कंधा बदलने से थोड़ी राहत मिलती होगी। इस कंधे पर वजन कम हो जाता है, यह थक जाता है तो फिर दूसरा कंधा। थोड़ी देर बाद फिर उनको मैं कंधे बदलते देखता हूं, फिर इस कंधे पर ले लेते हैं। कंधे बदल जाते हैं, लेकिन आदमी के ऊपर वह अरथी का बोझ तो तैयार ही रहता है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कंधे बदल लिए। थोड़ी देर राहत मिलती है, दूसरा कंधा फिर तैयार हो जाता है।

इसी तरह दुनिया में इतने धर्म पैदा हो गए, कंधे बदलने के लिए। नहीं तो कोई और कारण नहीं था कि ईसाई हिंदू हो जाता, हिंदू ईसाई हो जाता। एक पागलपन से छूटता है, दूसरा पागलपन हमेशा तैयार है। दुनिया में तीन सौ धर्म पैदा हो गए हैं, कंधे बदलने की सुविधा के लिए, और कोई उपयोग नहीं है। जरा भी उपयोग नहीं है। और भ्रांति यह पैदा होती है कि मैं एक गुलामी से छूटा, अब मैं आजादी की तरफ जा रहा हूं।

मैं आपको कोई नई गुलामी का संदेश देने को नहीं हूं। गुलामी से गुलामी की तरफ नहीं, गुलामी से स्वतंत्रता की तरफ यात्रा करनी है। वह मेरी बात मान कर नहीं हो सकता है। इसलिए मेरी बात मानने की जरा भी जरूरत नहीं है। मैं कहीं भी आपके रास्ते में खड़ा नहीं होना चाहता हूं। मैंने निवेदन कर दी अपनी बात, उसे सोचने-समझने की है। अगर वह फिजूल मालूम पड़े, तो उसे एकदम फेंक देना।"—ओशो "हम देखते हैं कि धार्मिक आदमी से ज्यादा गुलाम आदमी दिखाई नहीं पड़ता दुनिया में। होना उलटा था: धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक प्रतिमा होता, धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक गरिमा लिए होता, धार्मिक आदमी के जीवन से स्वतंत्रता की किरणें फूटती होतीं, वह एक मुक्त पुरुष होता, उसके चित्त पर कोई गुलामी न होती। लेकिन धार्मिक आदमी सबसे ज्यादा गुलाम है, इसीलिए धर्म सब झूठा सिद्ध हो गया है।… लोग मरघट पर अरथी ले जाते मैं देखता हूं, तो कंधे बदलते रहते हैं रास्ते में। इस कंधे पर रखी थी अरथी, फिर इस कंधे पर रख लेते हैं। कंधा बदलने से थोड़ी राहत मिलती होगी। इस कंधे पर वजन कम हो जाता है, यह थक जाता है तो फिर दूसरा कंधा। थोड़ी देर बाद फिर उनको मैं कंधे बदलते देखता हूं, फिर इस कंधे पर ले लेते हैं। कंधे बदल जाते हैं, लेकिन आदमी के ऊपर वह अरथी का बोझ तो तैयार ही रहता है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कंधे बदल लिए। थोड़ी देर राहत मिलती है, दूसरा कंधा फिर तैयार हो जाता है।

इसी तरह दुनिया में इतने धर्म पैदा हो गए, कंधे बदलने के लिए। नहीं तो कोई और कारण नहीं था कि ईसाई हिंदू हो जाता, हिंदू ईसाई हो जाता। एक पागलपन से छूटता है, दूसरा पागलपन हमेशा तैयार है। दुनिया में तीन सौ धर्म पैदा हो गए हैं, कंधे बदलने की सुविधा के लिए, और कोई उपयोग नहीं है। जरा भी उपयोग नहीं है। और भ्रांति यह पैदा होती है कि मैं एक गुलामी से छूटा, अब मैं आजादी की तरफ जा रहा हूं।

मैं आपको कोई नई गुलामी का संदेश देने को नहीं हूं। गुलामी से गुलामी की तरफ नहीं, गुलामी से स्वतंत्रता की तरफ यात्रा करनी है। वह मेरी बात मान कर नहीं हो सकता है। इसलिए मेरी बात मानने की जरा भी जरूरत नहीं है। मैं कहीं भी आपके रास्ते में खड़ा नहीं होना चाहता हूं। मैंने निवेदन कर दी अपनी बात, उसे सोचने-समझने की है। अगर वह फिजूल मालूम पड़े, तो उसे एकदम फेंक देना।"—ओशो "हम देखते हैं कि धार्मिक आदमी से ज्यादा गुलाम आदमी दिखाई नहीं पड़ता दुनिया में। होना उलटा था: धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक प्रतिमा होता, धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक गरिमा लिए होता, धार्मिक आदमी के जीवन से स्वतंत्रता की किरणें फूटती होतीं, वह एक मुक्त पुरुष होता, उसके चित्त पर कोई गुलामी न होती। लेकिन धार्मिक आदमी सबसे ज्यादा गुलाम है, इसीलिए धर्म सब झूठा सिद्ध हो गया है।… लोग मरघट पर अरथी ले जाते मैं देखता हूं, तो कंधे बदलते रहते हैं रास्ते में। इस कंधे पर रखी थी अरथी, फिर इस कंधे पर रख लेते हैं। कंधा बदलने से थोड़ी राहत मिलती होगी। इस कंधे पर वजन कम हो जाता है, यह थक जाता है तो फिर दूसरा कंधा। थोड़ी देर बाद फिर उनको मैं कंधे बदलते देखता हूं, फिर इस कंधे पर ले लेते हैं। कंधे बदल जाते हैं, लेकिन आदमी के ऊपर वह अरथी का बोझ तो तैयार ही रहता है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कंधे बदल लिए। थोड़ी देर राहत मिलती है, दूसरा कंधा फिर तैयार हो जाता है।

इसी तरह दुनिया में इतने धर्म पैदा हो गए, कंधे बदलने के लिए। नहीं तो कोई और कारण नहीं था कि ईसाई हिंदू हो जाता, हिंदू ईसाई हो जाता। एक पागलपन से छूटता है, दूसरा पागलपन हमेशा तैयार है। दुनिया में तीन सौ धर्म पैदा हो गए हैं, कंधे बदलने की सुविधा के लिए, और कोई उपयोग नहीं है। जरा भी उपयोग नहीं है। और भ्रांति यह पैदा होती है कि मैं एक गुलामी से छूटा, अब मैं आजादी की तरफ जा रहा हूं।

मैं आपको कोई नई गुलामी का संदेश देने को नहीं हूं। गुलामी से गुलामी की तरफ नहीं, गुलामी से स्वतंत्रता की तरफ यात्रा करनी है। वह मेरी बात मान कर नहीं हो सकता है। इसलिए मेरी बात मानने की जरा भी जरूरत नहीं है। मैं कहीं भी आपके रास्ते में खड़ा नहीं होना चाहता हूं। मैंने निवेदन कर दी अपनी बात, उसे सोचने-समझने की है। अगर वह फिजूल मालूम पड़े, तो उसे एकदम फेंक देना।"—ओशो
In this title, Osho talks on the following topics:
इस पुस्तक में ओशो निम्नलिखित विषयों पर बोले हैं:
सत्य, ध्यान, मौन, क्रांति, विद्रोह, सृजन, काम, प्रेम, रूपांतरण, अप्रयास
अधिक जानकारी
Type चुने हुए टॉक
Publisher ओशो मीडिया इंटरनैशनल
ISBN-13 978-0-88050-818-6
File Size 2331 KB
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