विज्ञान, धर्म और कला – Vigyan, Dharm Aur Kala

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विज्ञान, धर्म और कला पर ओशो प्रवचन।
विज्ञान, धर्म और कला पर ओशो प्रवचन।

उद्धरण : विज्ञान, धर्म और कला - सातवां प्रवचन - धर्म और विज्ञान का समन्वय

"मनुष्य के जीवन की सारी यात्रा, जो अज्ञात है उसे जान लेने की यात्रा है। जो नहीं ज्ञात है उसे खोज लेने की यात्रा है। जो नहीं पाया गया है उसे पा लेने की यात्रा है। जो दूर है उसे निकट बना लेने की। जो कठिन है उसे सरल कर लेने की। जो अनुपलब्ध है उसे उपलब्ध कर लेने की।

मनुष्य की इस यात्रा ने स्वभावतः दो दिशाएं ले ली हैं। एक दिशा मनुष्य के बाहर की ओर जाती है, दूसरी मनुष्य के भीतर की ओर।… जो जगत बाहर है, उसकी खोज; जो अज्ञात, जो अननोन बाहर है, उसे जान लेने की यात्रा विज्ञान बन गई है। और जो जगत भीतर है, वह जो अज्ञात भीतर है, उससे परिचित हो जाने की, उसे जी लेने की और जान लेने की यात्रा धर्म बन गई। और मनुष्य की समृद्धि और शांति इसमें ही निर्भर है कि ये दोनों यात्राएं विरोधी न हों--सहयोगी हों, साथी हों, समन्वित हों। लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो सका।

अब तक जिन लोगों ने पदार्थ के जगत में खोज की है, वे लोग परमात्मा के विरोधी रहे हैं। और जिन लोगों ने परमात्मा की खोज की है, वे पदार्थ के निंदक रहे हैं। इन दोनों तरह के लोगों ने मनुष्य की संस्कृति को परिपूर्ण होने से रोका है। इन दोनों ने ही उसे परिपूर्ण होने से रोका है। क्योंकि मनुष्य न केवल शरीर है; न केवल आत्मा है,मनुष्य न केवल पदार्थ है; न केवल परमात्मा है, मनुष्य तो दोनों का अद्भुत मिलन और संगीत है |...

विज्ञान और धर्म दो शत्रुओं की भांति खड़े हो गए हैं। उनकी शत्रुता मनुष्य के लिए बहुत महंगी पड़ रही है।

पश्चिम विज्ञान का प्रतीक बन गया है। पूरब धर्म का प्रतीक बन गया है। विज्ञान नास्तिकता का प्रतीक बन गया है, धर्म अलौकिकता का। ये दोनों ही बातें भ्रांत हैं और गलत हैं। ये दोनों ही बातें अधूरी और एकांगी हैं।"—ओशो

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Publisher OSHO Media International
ISBN-13 978-81-7261-231-3
Number of Pages 192