ध्‍यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्‍ति – Dhyanyog: Pratham Aur Antim Mukti

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ओशो द्वारा दिए गए ध्यान-प्रयोगों एवं ध्यान पर दिए गए प्रवचनांशों का संकलन।
ओशो द्वारा दिए गए ध्यान-प्रयोगों एवं ध्यान पर दिए गए प्रवचनांशों का संकलन।

उद्धरण : ध्‍यानयोग : प्रथम और अंतिम मुक्‍ति - पहला खंड : ध्यान के विषय में - ध्यान क्या है?
"साक्षी होना ध्यान है। तुम क्या देखते हो, यह बात गौण है। तुम वृक्षों को देख सकते हो, तुम नदी को देख सकते हो, बादलों को देख सकते हो, तुम बच्चों को आस-पास खेलता हुआ देख सकते हो। साक्षी होना ध्यान है। तुम क्या देखते हो यह बात नहीं है; विषय-वस्तु की बात नहीं है। देखने की गुणवत्ता, होशपूर्ण और सजग होने की गुणवत्ता--यह है ध्यान।

एक बात ध्यान रखें : ध्यान का अर्थ है होश। तुम जो कुछ भी होशपूर्वक करते हो वह ध्यान है। कर्म क्या है, यह प्रश्न नहीं, किंतु गुणवत्ता जो तुम कर्म में ले आते हो, उसकी बात है। चलना ध्यान हो सकता है, यदि तुम होशपूर्वक चलो। बैठना ध्यान हो सकता है, यदि तुम होशपूर्वक बैठ सको। पक्षियों की चहचहाहट को सुनना ध्यान हो सकता है, यदि तुम होशपूर्वक सुन सको। या केवल अपने भीतर मन की आवाजों को सुनना ध्यान बन सकता है, यदि तुम सजग और साक्षी रह सको। सारी बात यह है कि तुम सोए-सोए मत रहो। फिर जो भी हो, वह ध्यान होगा।

जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो--न शरीर से, न मन से--किसी भी तल पर नहीं--जब समस्त क्रियाएं बंद हो जाती हैं और तुम बस हो, स्व मात्र--यह है ध्यान। तुम उसे ‘कर’ नहीं सकते; उसका अभ्यास नहीं हो सकता; तुम उसे समझ भर सकते हो। जब कभी तुम्हें मौका मिले सिर्फ होने का, तब सब क्रियाएं गिरा देना... सोचना भी क्रिया है, एकाग्रता भी क्रिया है और मनन भी। यदि एक क्षण के लिए भी तुम कुछ नहीं कर रहे हो और तुम पूरी तरह अपने केंद्र पर हो--परिपूर्ण विश्राम में--यह है ध्यान। और एक बार तुम्हें इसकी युक्ति मिल जाए, फिर तुम इस स्थिति में जितनी देर रहना चाहो रह सकते हो; अंततः दिन के चौबीस घंटे ही इस स्थिति में रहा जा सकता है। एक बार तुम उस पथ के प्रति सजग हो जाओ तो ‘‘मात्र होना’’ अकंपित बना रह सकता है, फिर तुम धीरे-धीरे कर्म करते हुए भी यह होश रख सकते हो और तुम्हारा अंतस निष्कंप बना रहता है। यह ध्यान का दूसरा हिस्सा है। पहले सीखो कि कैसे बस होना है; फिर छोटे-छोटे कार्य करते हुए इसे साधो : फर्श साफ करते हुए, स्नान लेते हुए स्व से जुड़े रहो। फिर तुम जटिल कामों के बीच भी इसे साध सकते हो। उदाहरण के लिए, मैं तुमसे बोल रहा हूं, लेकिन मेरा ध्यान खंडित नहीं हो रहा है। मैं बोले चला जा सकता हूं, लेकिन मेरे अंतस-केंद्र पर एक तरंग भी नहीं उठती, वहां बस मौन है, गहन मौन।

इसलिए ध्यान कर्म के विपरीत नहीं है। ऐसा नहीं है कि तुम्हें जीवन को छोड़ कर भाग जाना है। यह तो तुम्हें एक नये ढंग से जीवन को जीने की शिक्षा देता है। तुम झंझावात के शांत केंद्र बन जाते हो। तुम्हारा जीवन गतिमान रहता है--पहले से अधिक प्रगाढ़ता से, अधिक आनंद से, अधिक स्पष्टता से, अधिक अंतर्दृष्टि और अधिक सृजनात्मकता से--फिर भी तुम सबमें निर्लिप्त होते हो, पर्वत के शिखर पर खड़े द्रष्टा की भांति, चारों ओर जो हो रहा है उसे मात्र देखते हुए। तुम कर्ता नहीं, तुम द्रष्टा होते हो। यह ध्यान का पूरा रहस्य है कि तुम द्रष्टा हो जाते हो। कर्म अपने तल पर जारी रहते हैं, इसमें कोई समस्या नहीं होती--चाहे लकड़ियां काटना हो या कुएं से पानी भरना हो। तुम कोई भी छोटा या बड़ा काम कर सकते हो; केवल एक बात नहीं होनी चाहिए और वह है कि तुम्हारा स्व-केंद्रस्थ होना न खोए। यह सजगता, देखने की यह प्रक्रिया पूरी तरह से सुस्पष्ट और अविच्छिन्न बनी रहनी चाहिए।" ओशो
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Publisher OSHO Media International
ISBN-13 978-81-7261-029-6
Dimensions (size) 140 x 216 mm
Number of Pages 284