अध्यात्म उपनिषद – Adhyatma Upanishad
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ध्यान साधना शिविर, माउंट आबू में हुई प्रवचनमाला के अंतर्गत ओशो द्वारा अध्यात्म उपनिषद के सूत्रों पर दिए गए सत्रह प्रवचन
ध्यान साधना शिविर, माउंट आबू में हुई प्रवचनमाला के अंतर्गत ओशो द्वारा अध्यात्म उपनिषद के सूत्रों पर दिए गए सत्रह प्रवचन
उद्धरण : अध्यात्म उपनिषद - सत्रहवां प्रवचन - धर्म है परम रहस्य
"यह उपनिषद बड़े अनूठे ढंग से समाप्त होता है। गुरु के उपदेश से समाप्त नहीं होता, शिष्य की उपलब्धि से समाप्त होता है।
गुरु ने क्या कहा, इस पर ही समाप्त नहीं होता; शिष्य को क्या हो गया, इस पर समाप्त होता है। और जब तक कोई शिक्षा हो न जाए जीवन, तब तक उसका कोई भी मूल्य नहीं है। जब तक कोई शिक्षा जीवंत न हो सके, तब तक मन का विलास है।
उपनिषद मन का विलास नहीं है, जीवन का रूपांतरण है।
गुरु ने अपांतरम को दी, अपांतरम ने ब्रह्मा को दी, ब्रह्मा ने घोरांगिरस को दी, घोरांगिरस ने रैक्व को दी, रैक्व ने राम को दी, राम ने समस्त भूतप्राणियों को दी। और हमने पुनः इस अदभुत चिंतन, दर्शन, साधन की पद्धति को, फिर से अपने भीतर जगाने की कोशिश की, फिर से थोड़ी लौ को उकसाया।
यहां से जाने के बाद, उस लौ को उकसाते रहना। कभी ऐसी घड़ी जरूर आ जाएगी कि आप भी कह सकेंगे:
‘अभी-अभी देखा था उस जगत को, वह कहां गया? क्या वह नहीं है?’
और जिस दिन आपको भी ऐसा अनुभव होगा, उस दिन आप भी कह सकेंगे:
‘मैं हरि हूं, मैं सदाशिव हूं, अनंत हूं, आनंद हूं, मैं ब्रह्म हूं।’
और जब तक यह आपके भीतर न हो जाए, तब तक कैसा यह निर्वाण का उपदेश? कैसा यह वेद का सार? और तब तक यह उपनिषद यहां तो समाप्त हो गया, लेकिन आपके लिए समाप्त नहीं हुआ है।
एक दिन ऐसा आए कि आप भी कह सकें कि उपनिषद की शिक्षा मेरे लिए भी समाप्त हो गई। मैं वहां पहुंच गया जहां उपनिषद पहुंचाना चाहते हैं।"—ओशो
गुरु ने क्या कहा, इस पर ही समाप्त नहीं होता; शिष्य को क्या हो गया, इस पर समाप्त होता है। और जब तक कोई शिक्षा हो न जाए जीवन, तब तक उसका कोई भी मूल्य नहीं है। जब तक कोई शिक्षा जीवंत न हो सके, तब तक मन का विलास है।
उपनिषद मन का विलास नहीं है, जीवन का रूपांतरण है।
गुरु ने अपांतरम को दी, अपांतरम ने ब्रह्मा को दी, ब्रह्मा ने घोरांगिरस को दी, घोरांगिरस ने रैक्व को दी, रैक्व ने राम को दी, राम ने समस्त भूतप्राणियों को दी। और हमने पुनः इस अदभुत चिंतन, दर्शन, साधन की पद्धति को, फिर से अपने भीतर जगाने की कोशिश की, फिर से थोड़ी लौ को उकसाया।
यहां से जाने के बाद, उस लौ को उकसाते रहना। कभी ऐसी घड़ी जरूर आ जाएगी कि आप भी कह सकेंगे:
‘अभी-अभी देखा था उस जगत को, वह कहां गया? क्या वह नहीं है?’
और जिस दिन आपको भी ऐसा अनुभव होगा, उस दिन आप भी कह सकेंगे:
‘मैं हरि हूं, मैं सदाशिव हूं, अनंत हूं, आनंद हूं, मैं ब्रह्म हूं।’
और जब तक यह आपके भीतर न हो जाए, तब तक कैसा यह निर्वाण का उपदेश? कैसा यह वेद का सार? और तब तक यह उपनिषद यहां तो समाप्त हो गया, लेकिन आपके लिए समाप्त नहीं हुआ है।
एक दिन ऐसा आए कि आप भी कह सकें कि उपनिषद की शिक्षा मेरे लिए भी समाप्त हो गई। मैं वहां पहुंच गया जहां उपनिषद पहुंचाना चाहते हैं।"—ओशो
Publisher | Divyansh Publication |
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ISBN-13 | 978-81-7261-030-2 |
Number of Pages | 332 |
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