उड़ियो पंख पसार – Udio Pankh Pasar

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ध्यान साधना पर माटूंगा, मुंबई में ओशो द्वारा दिए गए चार अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन
ध्यान साधना पर माटूंगा, मुंबई में ओशो द्वारा दिए गए चार अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन

मनुष्य बना ही है आकाश में उड़ने को। न उड़े आकाश में तो फिर पैर घसीट कर ही चलना पड़ेगा। जमीन पर ही चलते रहना मनुष्य के स्वभाव के प्रतिकूल है, अनुकूल नहीं। इसीलिए जीवन इतना बोझिल है, इतना भारग्रस्त है। जीवन में दुख का एक ही अर्थ है कि हम स्वभाव के अनुकूल नहीं हैं, प्रतिकूल हैं। दुख सूचक है कि हम स्वभाव से चूक रहे हैं; कहीं हम मार्ग से उतर गए हैं; कहीं पटरी से उतर गए हैं। जैसे ही स्वभाव के अनुकूल होंगे, वैसे ही आनंद, वैसे ही अमृत की वर्षा होने लगेगी। लेकिन मनुष्य के पंख पक्षियों जैसे पंख नहीं हैं कि प्रकट हों; अप्रकट हैं। देह के नहीं हैं, चैतन्य के हैं। और जिस आकाश की बात चल रही है, वह बाहर का आकाश नहीं, भीतर का आकाश है--अंतराकाश है। जैसा आकाश बाहर है, वैसा ही आकाश भीतर भी है--इससे भी विराट, इससे भी विस्तीर्ण, इससे भी अनंत-अनंत गुना बड़ा। बाहर के आकाश की तो शायद कोई सीमा भी हो। वैज्ञानिक अभी निश्चित नहीं हैं कि सीमा है या नहीं। अलबर्ट आइंस्टीन का तो खयाल था कि सीमा है; हम सीमा तक पहुंच नहीं पाए हैं, कभी न कभी पहुंच जाएंगे। क्योंकि विज्ञान की दृष्टि में, कोई भी वस्तु असीम कैसे हो सकती है? वस्तु है तो सीमा होगी ही। सीमा ही तो वस्तु को निर्मित करती है। नहीं तो वस्तु की परिभाषा क्या? अगर असीम हो तो न होने के बराबर हो जाएगी। लेकिन बाहर के आकाश की बात वैज्ञानिकों पर छोड़ दो। उस गोरखधंधे में अध्यात्म के खोजी को पड़ने की जरूरत भी नहीं है। वह उसकी चिंता का विषय भी नहीं है, न वह उसकी जिज्ञासा है। न निर्णय हो जाए कि बाहर के आकाश की सीमा है या सीमा नहीं है, तो उसे कुछ मिलेगा। उस निष्पत्ति से कुछ सार नहीं है। लेकिन भीतर के आकाश की कोई सीमा नहीं है। यह तो निश्चित हो गया, क्योंकि जो भी भीतर गया है--किसी देश में, किसी काल में--उस सभी का निरपवाद रूप से एक ही अनुभव है, एक ही साक्षात्कार है कि भीतर का आकाश अनंत है। उस भीतर के आकाश में उड़ने की क्षमता लेकर आदमी पैदा होता है; और चलता है बाहर के आकाश में, इससे घसिटता है। क्षमता में और वास्तविकता में मेल नहीं हो पाता। यह जो तालमेल नहीं है, यही हमारा दुख है, यही पीड़ा है, यही संताप है। तालमेल हो जाए, दुख मिट जाए, संगीत का जन्म हो, छंद उपजे, रस बहे, फूल खिलें। ऐसा ही समझो कि जैसे गुलाब के पौधे में कोई जुही के फूल लगाने की चेष्टा कर रहा हो। न लगेंगे फूल। आए कितना ही वसंत, हो कितनी ही वर्षा, उमड़-घुमड़ मेघ कितने ही मलहार गाएं, माली कितना ही खून-पसीना करे--नहीं, गुलाब में जुही के फूल न लगेंगे, चम्पा के फूल नहीं लगेंगे। गुलाब में तो गुलाब के ही फूल लग सकते हैं। और अगर जुही के फूल लगाने की चेष्टा की तो खतरा यही है कि कहीं ऐसा न हो कि गुलाब के फूल भी न लगें। क्योंकि तुम्हारी चेष्टा तो जुही के लिए होगी। तुम तो लगती हुई कलियों को भी तोड़ डालोगे कि ये तो जुही की नहीं हैं। तुम तो खिलते फूलों को भी नष्ट कर दोगे, क्योंकि वे तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं होंगे, कि वे तुम्हारी आकांक्षाओं के परिपूरक नहीं होंगे। —ओशो
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Publisher Osho Media International
Type फुल सीरीज