नारी और क्रांति – Nari Aur Kranti

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नारी-क्रांति पर प्रश्नोत्तर सहित ओशो द्वारा दिए गए छह अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन
नारी-क्रांति पर प्रश्नोत्तर सहित ओशो द्वारा दिए गए छह अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन

इस देश की जिंदगी में बहुत से दुर्भाग्य गुजरे हैं। और बड़े से बड़े जिस दुर्भाग्य का हम विचार करना चाहें वह यह है कि हम हजारों वर्षों से विश्वास करने वाले लोग हैं। हमने कभी सोचा नहीं है, हमने कभी विचारा नहीं है, हम अंधे की तरह मानते रहे हैं। और हमारा अंधे की तरह मानना ही हमारे जीवन का सूर्यास्त बन गया। हमें समझाया ही यही गया है कि जो मान लेता है वह जान लेता है। इससे ज्यादा कोई झूठी बात नहीं हो सकती। मानने से कोई कभी जानने तक नहीं पहुंचता। और जिसे जानना हो उसे न मानने से शुरू करना पड़ता है। संदेह के अतिरिक्त सत्य की कोई खोज नहीं है। संदेह मिटता है, लेकिन सत्य को पाकर मिटता है। और जो पहले से ही संदेह करना बंद कर देते हैं वे अंधे ही रह जाते हैं, वे सत्य तक कभी भी नहीं पहुंचते हैं। लेकिन हमें समझाया गया है विश्वास, बिलीफ, फेथ। हमें कभी नहीं समझाया गया डाउट, हमें कभी नहीं समझाया गया संदेह। इसलिए देश का मन ठहर गया और रुक गया है और गुलाम बन गया है। और ध्यान रहे, शरीर के ऊपर पड़ी हुई जंजीरें इतनी खतरनाक नहीं होतीं, आत्मा के ऊपर पड़ी हुई जंजीरें बहुत खतरनाक सिद्ध होती हैं। इस देश की आत्मा गुलाम है। शरीर से तो हम शायद मुक्त हो गए हैं, लेकिन आत्मा से मुक्त होने में हमें बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। आत्मा की गुलामी तोड़े बिना इस देश के जीवन में सूर्य का उदय नहीं होगा। और इस संबंध में ही थोड़ी बात मैं आपसे कहना चाहूंगा कि आत्मा की गुलामी के आधार क्या हैं और हम उन गुलामियों को कैसे तोड़ सकते हैं। पहला मनुष्य की आत्मा की गुलामी का आधार है--विश्वास, श्रद्धा, फेथ, बिलीफ। जो आदमी भी किसी पर भरोसा और विश्वास कर लेता है अंधे की तरह वह सदा के लिए गुलाम हो जाता है। जो आदमी भी संदेह करना नहीं सीख पाता वह कभी स्वतंत्रता की यात्रा पर नहीं निकल पाता है। संदेह का अर्थ? संदेह का अर्थ है कि जो स्वीकृत है, जिसे हमने माना हुआ है, उस पर प्रश्न उठाने की क्षमता, उसके ऊपर प्रश्न खड़े करने की क्षमता। इस देश में विज्ञान पैदा नहीं हुआ, क्योंकि हमने प्रश्न नहीं उठाए। हम प्रश्न उठाने में बहुत कमजोर हो गए हैं। हमने जो उत्तर एक बार मान लिए हैं, हम उन्हें माने ही चले जाते हैं। हजारों साल बीत जाते हैं, हमारी किताबें नहीं बदलती हैं। हजारों साल बीत जाते हैं, हमारी श्रद्धाएं नहीं बदलती हैं। हजारों साल बीत जाते हैं, हमारा मन ऐसा हो गया है जैसे कोई तालाब बन जाए--बंद; सड़ता है, लेकिन बहता नहीं। नदी की तरह हम नहीं रह गए हैं, हम तालाब की तरह बंद हो गए हैं। और जिंदगी है बहने में, और जिंदगी है रोज नये की खोज में, और जिंदगी है रोज अनजाने रास्तों की तलाश में। — Osho
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Publisher Osho Media International
Type फुल सीरीज