नानक दुखिया सब संसार – Nanak Dukhiya Sab Sansar

ऑडियोपुस्तकें
स्टॉक में
जीवन के विभिन्न पहलुओं पर ओशो द्वारा दिए गए सात अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन
नानक दुखिया सब संसार – Nanak Dukhiya Sab Sansar
Click on Chapter Titles below for Details of Each Talk
जीवन के विभिन्न पहलुओं पर ओशो द्वारा दिए गए सात अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन

लेकिन इस भांति जीना जरूर चाहिए कि पूरा जीवन एक पूजा हो जाए। और हम बचते हैं पूरे जीवन को पूजा बनाने से। इसलिए एक कोने में पूजा कर लेते हैं और पूरे जीवन को पूजा के बाहर छोड़ देते हैं। वह हमारी तरकीब है। घर के एक कोने में छोटा सा मंदिर बना लेते हैं औैर पूरे घर को मंदिर बनाने से बच जाते हैं। गांव में एक मंदिर बना लेते हैं फिर पूरे गांव का धर्म मंदिर में सिकुड़ जाता है, बात समाप्त हो जाती है। नहीं, पूजा नहीं करनी है किसी चीज की बल्कि इस भांति जीना है कि पूरा जीवन एक पूजा बन जाए। एक वर्शिप और एक प्रेयर बन जाए। और इस तरह जब हम फर्क कर लेते हैं कि ज्ञान, कि चरित्र, ये फर्क बड़े झूठे हैं। ऐसा कहीं फर्क है नहीं। यानी ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जिसमें चरित्र न हो और ऐसा कोई चरित्र नहीं है जिसमें ज्ञान न हो। असल में ज्ञान भीतरी घटना है, चरित्र उसकी बाहरी अभिव्यक्ति है और कोई फर्क नहीं है। यानी कोई आदमी कहे कि सत्य का ज्ञान, कि सत्य का आचरण, तो इसमें फर्क क्या करिएगा? इसमें फर्क इतना ही हुआ कि सत्य का अनुभव होगा, तो सत्य का आचरण होगा। ज्ञान और आचरण कोई ऐसी दो चीजें नहीं हैं। हां, भला ज्ञान दिखाई नहीं पड़ता, आचरण दिखाई पड़ता है। जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं और वृक्ष दिखाई पड़ता है। लेकिन जड़ें और वृक्ष ऐसी दो चीजें नहीं हैं। जहां जमीन से अलग भी दिखाई पड़ रही हैं, वहां भी सिर्फ अलग दिखाई ही पड़ रही हैं। कहीं किसी भी क्षण और किसी भी तल पर अलग होती नहीं हैं। और वह जो हमें फर्क दिखाई पड़ रहा है वह फर्क वृक्ष का और वृक्ष की जड़ों का नहीं है। वह एक सीमा तक मिट्टी है और एक सीमा के बाद मिट्टी नहीं है। इतना ही फर्क है। वह जिसको हम ज्ञान कहते हैं, वह भीतर है, जहां तक मिट्टी है और जिसको हम आचरण कहते हैं, वह बाहर है, जहां मिट्टी नहीं है, वह दिखाई पड़ जाता है। यानी अगर मेरी तरह से समझें तो जो ज्ञान दिखाई पड़ जाता है उसका नाम आचरण है और जो आचरण दिखाई नहीं पड़ता है उसका नाम ज्ञान है। इससे ज्यादा कोई फर्क नहीं है। कोई नहीं है। असल में हमारी आदत पड़ गई है कि हम, हम फर्क करके देखें। कोई फर्क नहीं है। दर्शन का मतलब है: देखना और चरित्र का मतलब है: जीना। यह दरवाजा मुझे दिखाई पड़ रहा है, यह दर्शन है; और जब मैं निकलूंगा इस दरवाजे से, तो वह चरित्र है। अगर मुझे दरवाजा दिखाई पड़ गया, तो मैं दीवाल से न निकलूंगा। और अगर दरवाजा मुझे दिखाई नहीं पड़ा, तो मैं दीवाल से निकलने की कोशिश में टकरा सकता हूं। दरवाजे का दिखाई पड़ना दर्शन है, और फिर दरवाजे से निकलना चरित्र है। और मैं नहीं सोच पाता कि जिसको दरवाजा दिखाई पड़ता है वह दरवाजे से न निकल कर कहीं और से निकलेगा, यह असंभव है। और अगर निकलता हो कहीं और से तो पक्का समझ लेना कि दरवाजा दिखाई नहीं पड़ा, और तो कोई कारण नहीं हो सकता। —ओशो
अधिक जानकारी
Publisher Osho Media International
Type फुल सीरीज