कस्तूरी कुंडल बसै – Kasturi Kundal Basai

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कबीर-वाणी पर ओशो द्वारा दिए गए दस प्रवचनों की माला जिसमें हर दूसरे दिन प्रश्नोत्तर प्रवचन हैं।
कबीर-वाणी पर ओशो द्वारा दिए गए दस प्रवचनों की माला जिसमें हर दूसरे दिन प्रश्नोत्तर प्रवचन हैं।

एक तिबेतन आश्रम में कोई हजार साल पहले एक छोटी सी घटना घटी। उससे ही हम कबीर में प्रवेश शुरू करें। बड़ा आश्रम था यह, और इस आश्रम ने एक छोटा नया आश्रम भी दूर तिब्बत के सीमांत पर प्रारंभ किया था। आश्रम बन गया। खबर आई कि सब तैयारी हो गई है, अब आप एक योग्य संन्यासी को पहुंचा दें जो गुरु का पद सम्हाल ले। प्रधान आश्रम के गुरु ने दस संन्यासी चुने और दसों को आश्रम की तरफ भेजा। पूरा आश्रम चकित हुआ। कोई हजार संन्यासी अंतःवासी थे। उन्होंने कहा: बात समझ में न आई--एक बुलाया था; दस भेजे। उत्सुकता बहुत तीव्र हो गई। जिज्ञासा सम्हले न सम्हली। तो कुछ संन्यासी गए और गुरु को कहा: हम समझ न पाए। एक का ही बुलावा आया था, आपने दस क्यों भेजे? गुरु ने कहा: रुको। जब वे पहुंच जाएं, तब तुम्हें समझा दूंगा। तीन सप्ताह बाद... यात्रा लंबी थी--पहाड़ी थी, पैदल यात्रा थी। तीन सप्ताह बाद खबर पहुंची कि आपने जो एक संन्यासी भेजा था, वह पहुंच गया। अब और भी मुसीबत हो गई। अब तो पूरा आश्रम एक ही चर्चा से भर गया कि यह तो रहस्य सुलझा न, और उलझ गया। दस भेजे थे; खबर आई, एक ही पहुंचा। फिर उन्होंने गुरु से पूछा। तो गुरु ने कहा: दस भेजो तब एक पहुंचता है। फिर पूरी कहानी बाद में पता चली। दस यात्रा पर गए। पहले ही गांव में प्रवेश किया और एक आदमी ने सुबह ही सुबह नगर के द्वार पर, पहला जो संन्यासी था, उसके पैर पकड़ लिए और कहा: ज्योतिषी ने कहा है कि जो भी व्यक्ति कल सुबह पहला प्रवेश करे, उसी से मैं अपनी लड़की की शादी कर दूं। लड़की यह है और इतना धन मेरे पास है, और कोई मालिक नहीं। एक ही लड़की है, कोई और मेरा बेटा नहीं। ज्योतिषी ने कहा: अगर पहला आदमी इनकार कर दे तो जो दूसरा आदमी हो; दूसरा इनकार करे तो तीसरा। तो तुम दस इकट्ठे ही हो, कोई न कोई स्वीकार कर ही लेगा। पहले ने ही स्वीकार कर लिया। लड़की बहुत सुंदर थी। धन भी काफी था। उसने अपने मित्रों से कहा कि मेरा जाना न हो सकेगा आगे; परमात्मा की मर्जी यही दिखती है कि मैं इसी गांव में रुक जाऊं। दूसरे गांव में जब वे पहुंचे तो गांव के राजा का जो पुरोहित था, वह मर गया था, और वह एक नये पुरोहित की तलाश में थे। अच्छी नौकरी थी, शाही सम्मान था; काम कुछ भी न था। एक संन्यासी वहां रुक गया। और ऐसे ही...। पहुंचते-पहुंचते, जब सिर्फ दस मील दूर रह गया था आश्रम, वे एक गांव में एक सांझ रुके। दो ही बचे थे। गांव के लोगों ने प्रवचन आयोजित किया था। उनमें से एक बोला। जब वह बोल रहा था तो एक नास्तिक बीच में खड़ा हो गया और उसने कहा कि यह सब बकवास है; ये बुद्ध और बुद्ध-वचन, ये सब दो कौड़ी के हैं, कचरा हैं, इनमें कुछ सार नहीं। जो संन्यासी बोल रहा था, उसने अपने मित्र से कहा: अब तुम जाओ। मैं यहीं रुकूंगा। जब तक इस नास्तिक को बदल कर आस्तिक न कर दिया, तब तक मैं इस गांव से निकलने वाला नहीं हूं। ऐसे एक पहुंचा। दस चलते हैं तब एक पहुंचता है। इस घटना के आधार पर तिब्बत में यह कहावत बन गई कि ‘दस चलते हैं तब एक पहुंचता है।' —ओशो
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Publisher Osho Media International
Type फुल सीरीज