दरिया कहै सब्द निरवाना – Dariya Kahe Sabad Nirbana

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दरियादास (बिहार वाले) इनके वचनों पर सूत्र तथा प्रश्नोत्तर सहित ओशो के नौ प्रवचन।
दरियादास (बिहार वाले) इनके वचनों पर सूत्र तथा प्रश्नोत्तर सहित ओशो के नौ प्रवचन।

दरिया कहै सब्द निरबाना! निर्वाण को शब्द में कहा तो नहीं जा सकता। निर्वाण को भाषा में व्यक्त करने का कोई उपाय तो नहीं। फिर भी समस्त बुद्धों ने उसे व्यक्त किया है। जो नहीं हो सकता उसे करने की चेष्टा की है। असंभव प्रयास अगर पृथ्वी पर कोई भी हुआ है तो वह एक ही है--उसे कहने की चेष्टा, जो नहीं कहा जा सकता। उसे बताने की व्यवस्था, जो नहीं बताया जा सकता। और ऐसा भी नहीं है कि बुद्धपुरुष सफल न हुए हों। सभी के साथ सफल नहीं हुए, यह सच है। क्योंकि जिन्होंने न सुनने की जिद ही कर रखी थी, उनके साथ सफल होने का कोई उपाय ही न था। उनके साथ तो अगर निर्वाण को शब्द में कहा भी जा सकता होता तो भी सफलता की कोई संभावना न थी। क्योंकि वे वज्र-बधिर थे। उन्होंने निर्णय ही कर लिया था न सुनने का, न देखने का। लेकिन जिन्होंने हृदय से गहा, जिन्होंने प्रेम की झोली फैलाई और बुद्धपुरुषों के वचनों को झेला, उन तक वह भी पहुंच गया जो नहीं पहुंचाया जा सकता। उन तक उसकी भी खबर हो गई जिसकी खबर की ही नहीं जा सकती है। उसी अर्थ में दरिया कहते हैं: ‘दरिया कहै सब्द निरबाना।’ कि मैं कह रहा हूं, निर्वाण से भरे हुए शब्द, निर्वाण से ओतप्रोत शब्द, निर्वाण में पगे शब्द। जो सुन सकेंगे, जो सुनने को सच में राजी हैं, जो विवाद करने में उत्सुक नहीं, संवाद में जिनका रस जगा है, जो मात्र कुतूहल से नहीं सुन रहे हैं वरन जिनके भीतर मुमुक्षा की अग्नि जन्मी है, वे जरूर सुन पाएंगे। शब्दों के पास-पास बंधा हुआ उन तक निःशब्द भी पहुंचेगा। क्योंकि जब दरिया जैसा व्यक्ति बोलता है तो मस्तिष्क से नहीं बोलता। जब दरिया जैसा व्यक्ति बोलता है तो अपने अंतर्तम की गहराइयों से बोलता है। वह आवाज सिर में गूंजते हुए विचारों की आवाज नहीं है, वरन हृदय के अंतर्गृह में सतत बह रही अनुभव की प्रतिध्वनि है। दरिया जैसे व्यक्ति के शब्द दरिया के भीतर जन्म गए शून्य से उत्पन्न होते हैं। वे उसके शून्य की तरंगें हैं। वे उसके भीतर हो रहे अनाहत नाद में डूबे हुए आते हैं। और जैसे कोई बगीचे से गुजरे, चाहे फूलों को न भी छुए और चाहे वृक्षों का आलिंगन न भी करे, लेकिन हवा में तैरते हुए पराग के कण, फूलों की गंध के कण उसके वस्त्रों को सुवासित कर देते हैं। कुछ दिखाई नहीं पड़ता कि कहीं फूल छुए, कि कहीं कोई पराग वस्त्रों पर गिरी, अनदेखा ही, अदृश्य ही उसके वस्त्र सुवासित हो जाते हैं। गुलाब की झाड़ियों के पास से निकलते हो तो गुलाब की कुछ गंध तुम्हें घेरे हुए दूर तक पीछा करती है। ऐसे ही जब शब्द किसी के भीतर खिले फूलों के पास से गुजर कर आते हैं तो उन फूलों की थोड़ी गंध ले आते हैं। मगर गंध बड़ी भीनी है। गंध अनाक्रामक है। गंध बड़ी सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। जो हृदय को बिलकुल खोल कर सुनेंगे, शायद उनके नासापुटों को भर दे; शायद उनके प्राण में उमंग बन कर नाचे; शायद उनके भीतर की वीणा के तार छू जाएं; शायद उनके भीतर भी अनाहत का जागरण होने लगे; शायद उनकी आंखें खुलें, उन्मेष हो, उन्हें भी पता चले कि रात ही नहीं है, दिन है, और उन्हें भी पता चले कि अंधियारा सच नहीं है, सच तो आलोक है। और हम अंधियारे में जीते थे, क्योंकि हमने आंखें बंद कर रखी थीं। और शोरगुल सिर्फ मस्तिष्क में है। जरा नीचे मस्तिष्क से उतरे कि संगीत ही संगीत है। ओंकार का नाद अहर्निश बज रहा है। —ओशो
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Publisher Osho Media International
Type फुल सीरीज